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७६ अमर दीप संघर्ष से बचकर भागने से एक ओर तो जीवन-रक्षा संदेह या खतरे में पड़ जाती है, दूसरी ओर विरोधी शक्ति को प्रोत्साहन मिलता है। फलतः चाहे या न चाहे, अपने या परिवार के जीवन निर्वाह की गति ठप्प होने का खतरा उपस्थित होने पर वह शान्त या चुपचाप बैठ ही नहीं सकता। इसलिए सम्मान सहित जीवित रहने का एक ही मार्ग है कि साहस एवं दृढ़ता के साथ संघर्ष का पूरी तरह डटकर मुकाबला किया जाए। जो शूरवीर और साहसी होता है, वह संग्राम को देखकर कभी भागता नहीं। कहा भी है
सूर संग्राम को देख भागे नहीं । देख भागे सो ही शूर नाहीं।
___ आन्तरिक संग्राम का स्वरूप __ मैं आपके सामने जिस संघर्ष, युद्ध या संग्राम की बात कर रहा हूँ, वह जीवन के अन्य व्यावहारिक, पारिवारिक, सामाजिक या राष्ट्रीय संघर्षों की नहीं, अपितु ऐसे आध्यात्मिक जीवन-संघर्ष की बात कर रहा है, जो हमारे जीवन में चल रहा है, हमारी आत्मा के उत्थान या पतन का, विकास या ह्रास का, सफलता-असफलता अथवा जय-पराजय का दारोमदार उसी संघर्ष या युद्धपर है, जो आत्मिक विजय-रूप ध्येयलक्ष्यी हो । आन्तरिक जीवन में चल रहे इस संग्राम में देवी और आसुरी दोनों प्रकार की सेनाएँ अन्तः करण के मैदान में डटी हुई रहती हैं । दैवी और आसुरी वृत्तियों-प्रवृत्तियों का यह परस्पर संघर्ष सदैव चलता रहता है। इसे ही जैन परिभाषा में धर्म और शुभाशुभ कर्म की संग्राम कहते हैं । अथवा दार्शनिक भाषा में शुद्ध परिणति और शुभाशुभपरिणति का युद्ध कहते हैं।
भगवद्गीता में जिस महाभारत का वर्णन है, वह इसी प्रकार का आन्तरिक या आध्यात्मिक युद्ध है । वैदिक पुराणों में देवासुर-संग्राम का वर्णन है, वह इसी आध्यात्मिक-साधना-समर का आलंकारिक निरूपण है। इस समर में असुर प्रायः प्रबल होते हैं, देव उनसे भयभीत हो जाते हैं। दोनों पक्ष लड़ते हैं, देव बहुधा संगठित न होने के कारण हार जाते हैं। महाभारत के वर्णन में भी कौरवों के रूप में आसुरी वृत्तियाँ बड़ी प्रबल, बहुसंख्यक और संगठित हैं, जबकि दैवी वृत्तियों के रूप में पाण्डव पाँच ही हैं, उनके सहायक एवं सैनिक भी थोड़े ही हैं। तथा वे शांतिप्रिय, न्यायप्रिय एवं संघर्ष से दूर रहने वाले हैं; वे प्रायः-झंझट में पड़ने से कतराते हैं। राम के पक्ष की सेना और रावणपक्ष की सेना का और खासकर दोनों पक्ष के योद्धाओं का युद्ध भी एक प्रकार से हमारी आन्तरिक स्थिति का बाह्य चित्रण है । अध्यात्म-रामायण में इसका निरूपण स्पष्ट रूप