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अहंकार विजय के सूत्र ६६
मान या अहंकार पर विजय पाने के उपाय मान या अहंकार आत्मा के सूक्ष्म शत्रु हैं, अगर मन में उठते हुए मान या अहं को दबाया नहीं जाता है तो वह धीरे-धीरे भयंकर रूप लेने लगता है, साधक को पद-पद पर मानरूपी सर्प आकर डसता है और उसकी साधना को विषाक्त बना देता है।
मान, गर्व, दर्प या अहंकार को दबाने या मिटाने के लिए भगवान् महावीर ने विनय धर्म का उपदेश दिया है। विनय धर्म का व्यावहारिक रूप अपने से बड़े ज्ञान दर्शन-चारित्र में ज्येष्ठ को नमन करना । अर्हतर्षि पूष्पशालपुत्र ने अपने जीवन से साधकों को विनय और उससे होने वाले परमलाभ की प्रेरणा देते हुए कहा
णमंसमाणस्स सदा संति आगम । वट्टती । कोह-माण-पहीणस्स; आता जाणइ पज्जवे ॥३॥ कोह-माण-परिणस्स, आता जाणाति पज्जवे । कुणिमं च ण सेवेज्जा, समाधिमभिदंसए॥४॥ ण पाणे अतिपातेज्जा, अलियादिण्णं च वज्जए। ण' मेहुणं च सेवेज्जा, भवेज्जा अपरिग्गहे ॥५॥
अर्थात्-'नमस्कार करने वाले' की आत्मा सदैव शान्ति और आगम (ज्ञान) में लीन रहती है। (आत्मज्ञान प्राप्ति से) क्रोध और मान (आदि कषायों) से रहित आत्मा समस्त पर्यायों को जानती है।
ज्ञपरिज्ञा से क्रोध और मान को जानकर, प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उनका त्याग करने वाला परिज्ञाता आत्मा सर्व पर्यायों का परिज्ञाता हो जाता है। ऐसी स्थिति में समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझने वाला वह साधक प्राणियों का मांसाहार तो कर ही नहीं सकता, साथ ही किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता. किसी के साथ असत्य नहीं बोलता, किसी की चोरी नहीं करता, मैथुन-सेवन नहीं करता, वह सदैव अपरिग्रही रहता है।
नमनशील आत्मा की मुख्य उपलब्धि बन्धुओ ! नमनशील आत्मा नम्र और विनयी होती है, वह देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के प्रति नम्रातिनम्र बनकर उनकी आज्ञाओं का पालन करता है। तीर्थंकर देवों द्वारा प्ररूपित, सद्गुरुओं द्वारा उपदिष्ट एवं धर्मशास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट वचनों के प्रति उसकी पूर्ण निष्ठा होती है। इनके द्वारा प्रतिपादित आगमों का वह पूर्ण विनयपूर्वक अध्ययन करता है । आगमों का अध्ययन करने से उसकी आत्मा शान्ति-पथ में लीन रहती है । ऐसा साधक अशान्ति