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अहंकार-विजय के सूत्र ६७ और शील का मद भी मनुष्य को साधना-पथ से भ्रष्ट कर देता है। कर्ममुक्त होकर आत्मविशुद्धि करने के बदले ऐसा अभिमानी साधक आठ प्रकार के मदों (अहंकारों) में से किसी भी मद से मत्त होकर अशुभ कर्मबन्धन करके आत्मा को और भी अशुद्ध बना लेता है।
ज्ञानमद के दुष्परिणाम बात यह है कि साधक को जब अपने ज्ञान (भाषाज्ञान, व्यावहारिक ज्ञान या शास्त्रीयज्ञान) का अभिमानरूपी ज्वर चढ़ जाता है, तब वह अपने से बढ़कर किसी को भी कुछ नहीं समझता। इस प्रकार वह सर्वज्ञों की आशातना तो करता ही है, साथ ही छद्मस्थ ज्ञानियों, श्रुतकेवलियों, एवं आगमज्ञों की भी अवहेलना करता है। इस घोर आशातना के फलस्वरूप वह घोर अशुभ कर्मों का बन्ध करता है। साथ ही वह इतना अभिमानी हो जाता है कि नया ज्ञान सीखने के द्वार बन्द कर देता है। इससे ज्ञान का विकास रुक जाता है, अनन्तज्ञानरूप समुद्र का एक बिन्दुभर ज्ञान पाकर ही रह जाता है, वह कूपमण्डूक बन जाता है। ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारण नया ज्ञान उसे प्राप्त नहीं होता। उसकी जिज्ञासा के द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं। सम्यग्ज्ञान के अभाव में उसकी विचारशक्ति कुण्ठित हो जाती है। उसकी ज्ञानपिपासा बढ़ती ही नहीं, फलतः वह ज्ञान का अंशमात्र पाकर अपने आपको ज्ञानी, उपदेशक, पण्डित, विद्वान् आदि मानने लगता है। फिर वह ज्ञानी पुरुषों की निन्दा करके अपने मनमाने विचारों, मनगढन्त सिद्धान्तों का प्रचार करने लगता है। . वास्तव में देखा जाए तो भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की उत्पत्ति का मूल यह ज्ञानमद ही है। अधूरे और अपरिपक्व ज्ञान के कारण व्यक्ति में दूरदर्शिता, विनीतता, ग्रहणशीलता, जिज्ञासा आदि गुण नहीं पनप पाते । फलतः संकुचित विचारों के कीड़े उसके दिमाग में कुलबुलाने लगते हैं। वह क्रियाकाण्डों को अधिक तूल देकर सम्यग्ज्ञान-प्राप्ति के दरवाजे बंद कर देता है, अपने शिष्यों और अनुगामियों को वह सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने से रोक देता है। वह ज्ञानी पुरुषों से ईर्ष्या और द्वष करने लगता है, ज्ञान और ज्ञानी के दोष निकालने लगता है, यहाँ तक कि उसने जिनसे ज्ञान प्राप्त किया है, उनका नाम छिपाने लगता है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानी की आशातना से ज्ञानावरणीय कर्म का घोर बन्धन होता है। तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञानावरणीय कर्म-बन्धन के ये ही पाँच मुख्य कारण बताए हैं
"तत्प्रदोष-निन्हव-मात्सर्यान्त रायाऽशादनोपघाताः ज्ञान-दर्शनावरणयोः।"