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निर्लेप होने का सरल विज्ञान ४७ अर्थात-प्राणातिपात (हिंसा) लेप है, असत्यवचन लेप है, अदत्तादान और मैथुन-सेवन लेप है, परिग्रह भी लेप है । क्रोध के अनेक रूप हैं, वे सब लेप हैं। माया और मान भी अनेक प्रकार के हैं, वे भी लेप हैं। लोभ भी अनेक प्रकार के हैं, वे भी लेपरूप हैं।
इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक जो पापकर्म हैं, वे सब आत्मा के लिए लेप हैं।
भावलेप का अर्थ यहाँ दार्शनिक भाषा में आत्मा की विभाव परिणति है और उसके द्वारा आकर्षित कर्म द्रव्यलेप है। लेप एक प्रकार से आत्मा पर आवरण हैं, कषायादि विकार हैं, अथवा पापकर्म हैं।
कई लोग कहते हैं पापकर्म या विकार के लेप से सर्वथा रहित होना असम्भव है, परन्तु जैनदर्शन कहता है - यह कोई असम्भव बात नहीं है। जैसे एक घी या तेल का बर्तन है, जिसमें से घी या तेल निकाल लेने पर भी थोड़ा-सा घी या तेल का लेप रहता है, उसी प्रकार कर्मों को क्षय करने पर भी थोड़ा-थोड़ा कर्मों का लेप रह जाता है। परन्तु जैसे घी या तेल के बर्तम को तपाकर उसको कपड़े से रगड़कर जो थोड़ी-सी चिकनाई का लेप रह गया है, उसे भी दूर कर दिया जाता है, उसी प्रकार कर्मों का या कषायों सूक्ष्म लेप रह जाने पर भी बाह्य-आभ्यन्तर तपस्या, धर्मध्यानशुक्लध्यान, अनुप्रेक्षा, व्रत, नियम, महाव्रत, समिति-गुप्ति के पालन तथा सम्भावपूर्वक परीषह-सहन से शेष रहे सूक्ष्म कर्मों को भी काटा जा सकता है। जिस प्रकार प्रकाशमान होते हुए भी सूर्य पर बादल आ जाने से उसका प्रकाश ढक जाता है, उसी प्रकार आत्मारूपी सूर्य पर पापकर्म के लेपरूपी बादलों के आ जाने से उसका ज्ञानादि प्रकाश आवृत हो जाता है। बादलों के हटते ही सूर्य प्रकाशित हो उठता है, उसी प्रकार पापकर्म लेप रूपी बादलों के हटते ही आत्म-सूर्य अनन्त ज्ञानादि से प्रकाशित हो उठता है । अतः लेप एक प्रकार का भाव-आवरण है।
लेप कब और कैसे लग जाते हैं ? - यह ठीक है कि अठारह प्रकार के पापस्थान लेप हैं और आत्मा इन लेपों से मुक्त होने का पुरुषार्थ करे तो लेप से उपरत भी हो सकता है। परन्तु प्रश्न यह है कि आत्मा मूल में तो लेपरहित, निरंजन, निराकार है, फिर ये लेप उसके कब लेग जाते हैं ? मैं एक रूपक द्वारा इसे समझाता
एक जगह भाँग घोंटकर लोटे में रखी हुई है। कहते हैं--भांग नशा चढ़ाती है। परन्तु क्या वह भाँग घोंटी जाने वाली शिला को, लोटे को या