________________
प्रगति का मूलमंत्र : समभाव ५७ -जिसका मन त्याग की ओर आकर्षित नहीं है, ऐसा साधक सभा में बैठता है, तब उसका रूप दूसरा होता है, और एकान्त में होता है, तब कुछ और ही रूप होता है । इसके विपरीत सच्चा साधक अपना आत्मनिरीक्षण करके अपने आपको पापकर्म से रोकता है।
यह मायावी साधक के जीवन का बहुरूपियापन है कि जनता के सामने दूसरा रूप रखना और उसके दूर होते ही दूसरा रूप अपनाना । यह मायाचार जीवन को ले डबता है । वह साधक अपने और समाज के प्रति ईमानदार नहीं है, जो जनता के देखते तो अपनी चर्या संयमी जैसी बना लेता है किन्तु उसके दृष्टि से हटते ही अपना रूप और तर्ज बदल लेता है। दुनिया की आँखें देखें या न देखें, साधक की अपनी आँखें तो उसे देख रही हैं । भगवान् महावीर ने साधक के लिए कहा है---
से गामे वा नगरे वा, दिआ वा राओ वा, एगओ वा परिसागओ वा, सुत्त वा जागरमाणे वा...... ।" ___ - वह भिक्ष या भिक्षुणी छोटे-से गांव में हो, या बड़े शहर में हो, वन के सूने एकान्त में अकेला हो, या हजारों के बीच परिषद् में बैठा हो, सोता हो, या जागता हो ... उसकी साधना की धारा सदैव एक रूप में बहनी चाहिए।
माया के कटुफल माया के कुटिल पंजों में पड़कर मानव अपने वास्तविक जीवन का गला घोंटने लगता है, अंदर और बाहर का मायामय भेद उसके मन के टुकड़े-टुकड़े कर देता है । धर्मस्थान में मायावी व्यक्ति का रूप धार्मिक दिखाई देगा, परन्तु उस व्यक्ति को दुकान में या घर में अथवा अन्य किसी स्थान में देखेंगे तो शायद वह आपको माया और दम्भ की घिनौनी प्रवृत्तियों से घिरा हुआ प्रतीत होगा। आप पूछेगे, ऐसा क्यों होता है ? वास्तव में मायां का अर्थ ही है-सत्य को छिपाना । जहाँ माया होती है, वहाँ दम्भ, आडम्बर, थोथा प्रदर्शन, आवरित असत्य होता है। मायावी मानव जिस रूप में है, उससे दूसरे रूप में स्वयं को दिखाता एवं समझाता है । जहाँ सत्य को छिपाते का ही दुर्लक्ष्य हो, वहाँ मनुष्य को आत्मोन्नति की राह कैसे मिल सकती है, वह जन्म-मरण के बंधनों को, शुभाशुभ कर्म की जंजीर को कैसे काट सकता है ? क्योंकि माया के फलस्वरूप उसे अनन्त बार गर्भ में आना पड़ता है। माया करने वालों के लिए शास्त्र में बहुत ही कटुफल बताया है । एक कवि ने कहा है