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अमर दीप
णासंवसता सक्क, सौलं जाणित्तु माणवा ।
परमं खलु पडिच्छन्ना, मायाए दुट्ठमाणसा ॥ -(अच्छे-बुरे) मनुष्यों के (शील) स्वभाव को उनके साथ रहे बिना जाना नहीं जा सकता, क्योंकि दुष्ट-प्रवृत्ति के मानव माया से ढके रहते हैं।
इसीलिए अंगिरस ऋषि ने आगे कहा कि दीवारों पर अंकित सूत्र और काष्ठ पर आलेखित चित्र जितने सुविज्ञात हैं, उतना ही गहन और दुर्विज्ञात मानव का हृदय है। ... ऐसे वक्र हृदय वाला व्यक्ति बड़ी सफाई के साथ अपने दोषों को छिपाये रखता है। वह निःशंक रहता है कि इस घटना को केवल मैं ही जानता हूँ, दूसरा कोई नहीं। ऐसा मायावी साधक 'पतंत्र' में अंकित उस गधे के समान है, जिसे बाघ का चमड़ा ओढ़ा दिया था। वह कहानी इस प्रकार है -
एक गधे के मालिक ने सोचा-'इस गधे को रोज-रोज काफी खिलाना पड़ता है । गाँव के बाहर किसानों के खेत अनाज से लहलहा रहे हैं, वहाँ किसी भी खेत में बाघ का चमड़ा ओढ़ाकर छोड़ दिया जाए तो छक कर चर लेगा और वापस चला आएगा। इससे किसान भी इससे डर कर निकट नहीं जाएँगे, न ही इसे खदेड़ सकेंगे।' उसी दिन रात्रि में गधे को बाघ का चमड़ा ओढ़ाकर एक खेत में छोड़ दिया । गधा खब मस्ती से चरने लगा। सुबह होते ही किसान आए तो वे खेत में घुसे हुए व्याघ्र जैसे जानवर को देखकर घबरा गए । एक चतुर किसान ने गौर से देखा तो शक हुआ कि हो न हो यह कोई दूसरा जानवर हो, क्योंकि बाघ होता तो वह हरी पत्ती खाता ही नहीं। चलो, लाठी लेकर चलें। सब किसान मिलकर खेत में घुसे और उस गधे को खदेड़ने लगे। एक ने उसकी पीठ पर लट्ठ जमाया तो ढेंचू-टेंचू करता हुआ वह भागा । सबने समझ लिया यह बाघ का चमड़ा ओढ़ा हुआ गधा है ।
ऐसे ही कई कपटी साधक होते हैं, जिनका बाहरी रूप कुछ दूसरा होता है, भीतरी रूप कुछ और । अर्थात्- बाहरी सिक्का तो पूर्ण आत्म संयमी साधक का रहता है और भीतरी सिक्का खराब होता है। ऋषि कहते हैं
अदुवा परिसामज्झे, अदुवा विरहेकडं । ततो निरिक्ख अप्पाणं, पावकम्मा णिरुम्भति ॥८॥