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६२ अमर दीप दुनिया की आलोचना से क्षुब्ध न हो ।
कोई भी मानव सारी दुनिया को प्रसन्न नहीं कर सकता । सूर्य सब को प्रकाश देता है, फिर भी उल्लू उसकी बुराई करेगा ही। अंगिरस ऋषि प्रत्येक साधक को स्थितप्रज्ञ होने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं
वदतु जणे जं से इच्छियं, किण्णु कलेमि उदिण्णमप्पणो।
भावित मम पत्थि एलिसे, इति संखाए न संजलामहं ॥ "कोई भी व्यक्ति चाहे जो कुछ बोल सकता है, मैं अपने आपको उद्विग्न क्यों करूं? मुझसे वह सन्तुष्ट नहीं है, यही समझकर मैं कुपित नहीं होता।"
वास्तव में, जिसके स्वार्थ को ठेस लगेगी, वह अवश्य आलोचना करेगा । उस स्थिति में साधक अपना मानसिक सन्तुलन न खोए । वह यह सोचे कि दुनिया चाहे जो कुछ बोल सकती है। यदि मैं संयम और साधना के प्रति वफादार हूँ तो मुझे इन आलोचनाओं से घबराना नहीं चाहिए। मेरे द्वारा किसी की स्वार्थ सिद्धि नहीं हो रही है, अथवा मेरा आचरण उसकी इच्छा के अनुकूल नहीं है, इसलिए वह मेरे प्रति क्षब्ध है, फिर मैं उसके द्वारा की गई आलोचना से उद्विग्न होकर अपनी शान्ति क्यों भंग करूँ ?
वस्तुतः दुनिया में सबकी आलोचना होती है । सच्चा साधक आलोचना सुनकर उद्विग्न नहीं होता । पुराने सन्त एक कहानी सुनाया करते थे
पिता और पुत्र एक गधा साथ में लेकर किसी दूर के गाँव में जा रहे थे। रास्ते में जब पहला गाँव आया तो दोनों को पैदल चलते देख कुछ लोगों ने मजाक की.-'कितने मूर्ख हैं, ये दोनों ? सवारी होते हुए भी पैदल चल रहे हैं ।' उनकी आलोचना सुनकर बेटे ने कहा-"पिताजी ! आप बूढ़े हैं, अतः आप गधे पर बैठ जाइए। मैं पैदल चलता हूँ।"
_ 'अच्छा बेटा !', यों कहकर बूढ़ा पिता गधे पर बैठ गया। अगला गाँव आते ही लोगों ने फिर आलोचना शुरू की - "देखो ! इस बूढ़े में अपने छोटे बच्चे के प्रति जरा भी प्यार नहीं है। स्वयं गधे पर चढ़ा चल रहा है और बच्चे को पैदल चला रहा है।" यह सुनकर बूढ़ा स्वयं उतर गया और बच्चे को बिठा दिया। कुछ ही दूर आगे बढ़े होंगे कि अगले गाँव के कुछ आदमी इन्हें देखकर बोले--"हाय ! घोर कलियुग आ गया है । देखो, बेचारा बूढ़ा बाप घिसटता हुआ चल रहा है और जवान बेटा