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प्रगति का मूलमंत्र : समभाव
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दुनियाँ सिर्फ बाहर को देखती है और बाहर से जिसका जीवन घृणास्पद दिखाई दे रहा है, उसके ऊपर का कठोर आवरण हटाने पर अन्तर् में करुणा और मैत्री का मधुर झरना बहता हुआ मिल सकता है और दुनिया की नजरों में जो सन्त है, उसके ऊपरी आवरण को हटाने पर भीतर में वह चोर भी निकल सकता है । अतः किसी के कहने मात्र से जो साधक फिसल जाता है, प्रशंसा से फूल जाता है, निन्दा से उद्विग्न हो जाता है, निन्दा और प्रशंसा के क्षणों में समभाव नहीं रख सकता, वह साधना के अवसर को खो देता है। ऐसे समय में उसे सन्तुलित और सुसमाधिस्थ होकर सोचना चाहिए कि मैं यदि संयम से रहित साधु है तो स्वार्थ या अन्धश्रद्धा से प्रेरित व्यक्ति द्वारा चढ़ाए हुए श्रद्धा के सुमन या सम्मान के पुष्प मुझे साधु के रूप में बदल नहीं देंगे, न ही सच्चे निर्ग्रन्थ की किसी के द्वारा की हुई निन्दा या अवमानना उसे समभाव से विचलित कर सकती है। यदि निन्दा और प्रशंसा में साधक की जीवन-तुला सम नहीं रहती है, तो उसकी साधना में यह कसकता कांटा चुभा हुआ है।
यदि साधक में समभाव है तो प्रशंसा के फूल उसके मन में गुदगुदी नहीं पैदा कर सकते और न ही निन्दा के शूल उसके मन में टीस पैदा कर सकते हैं । दुनिया की आलोचनाएं उसे अपने मार्ग से हटा नहीं सकती।
एक रूपक द्वारा अंगिरस ऋषि इस तथ्य को समझाते हैं- उल्लू प्रकाश की निन्दा और अन्धकार की स्तुति करता है, कौआ रात्रि की निन्दा और दिन की प्रशंसा करता है, यह निन्दा और प्रशंसा वस्तु की अच्छाई और बुराई के प्रति नहीं है, अपितु अपनी स्वार्थ-प्रति अंधेरे में होती देख उल्लू रात्रि की प्रशंसा करता है और कौआ अपने स्वार्थ की क्षति होती देख रात की निन्दा करता है। मतलब यह है कि जिस निन्दा या प्रशंसा के पीछे केवल स्वार्थयुक्त ममत्व है, वे दोनों ही तथ्यविहीन हैं।
अज्ञानी और भोली जनता सत्य से अनभिज्ञ रहने के कारण अन्धश्रद्धा में पलती है, उससे प्रशंसा प्राप्त कर लेना आसान है। विद्वानों के जगत् में प्रशंसा उतनी सस्ती नहीं है, क्योंकि वे भावुक नहीं होते, उनमें दूसरों की प्रशंसा को पचाने की क्षमता भी कम होती है। अतः साधक को गहराई से विचार करना चाहिए कि इस मायाशील विश्व में निन्दा और प्रशंसा कदम-कदम पर मिलती हैं, उसे दोनों स्थितियों में समता रखनी है, मन में असमता नहीं आने देनी है।