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प्रगति का मूलमंत्र : समभाव
साधनामय जीबन के कसकते कांटे धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! हमारे जीवन के मुख्यतया दो रूप हैं-एक ओर शरीर है और दूसरी ओर हमारी आत्मा है।
शरीर जीवन का स्थूल, नाशवान और दृश्यमान रूप है, किन्तु आत्मा उसका सूक्ष्म, अविनाशी और अदृश्य अमूर्तरूप है। शरीर से मनुष्य कितना ही बलिष्ठ हो, सुन्दर हो, सुडौल हो और सर्वांगसम्पन्न हो, लेकिन उसकी आत्मा निर्बल, अपवित्र, पतित हो; वह आत्मबल, आत्मविकास और आत्मगुण से दूर हो तो उसका साधनामय जीवन बिलकुल निम्न कोटि का होगा। साधनामय जीवन को परिपुष्ट, सुदृढ़ और सशक्त बनाने के लिए आत्मा को बलिष्ठ, शक्तिसम्पन्न और आत्मगुणों से सुसज्जित बनाना जरूरी है। अगर आत्मा को बलवान बनाना हो तो शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति जो अहंता और ममता है. जो कुटिलता और माया है और जो निन्दा-प्रशंसा में असमता है, उसे दूर करना होगा। अगर साधनामय जीवन में ये सब हैं, तो समझ लीजिए ये साधना-शरीर में चुभे हुए कसकते तीखे कांटे हैं ।
भारद्वाज-गोत्रीय अंगिरस अर्हतर्षि ने चतुर्थ अध्ययन में साधनाशरीर में चुभने वाले इन कसकते तीखे कांटों की ओर संकेत किया है। इनके नाम अंगिरस ऋषि के संकेतानुसार हम यों रख सकते हैं—(१) अहंता-ममता, (२) कुटिलता और माया, तथा (३) निन्दा-प्रशंसा में असमता।
मनुष्य गृहस्थ हो या साधु जब अपना साधना-जीवन प्रारम्भ करता है, तब उसे अपने जीवन में चुभे हुए इन तीनों तीक्ष्ण भाव-कंटकों