________________
दुःख के मूल : समझो और तोड़ो
३६
न जाने माली कब आयेगा ? कौन देखता है, ऐसे ही ले लिए जाएँ, क्यों पैसे खर्च किये जाएँ । (यहाँ वासना नीति की सीमा लांघ गई ।) हाथ आगे बढ़े और लोभवश कुछ अधिक फूल लेकर वह चलने को ही था कि तभी माली ने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया । चोरी के अपराध में मोहन को पुलिस के हाथों गिरफ्तार करवा दिया गया । ( इस घटना में राग, वासना, अनीति, लोभ एवं चोरी ये सब मोह के ही प्रकार हैं ।) मोह के कारण ही मोहन को दुःख उठाना पड़ा । यद्यपि मोहकर्म का फल कभी-कभी देर से भी मिलता है, किंतु इस घटना में तुरन्त फल मिल गया । अतः यह याद रखिए कि जहाँ मोह है, वहाँ दुःख अवश्यम्भावी है ।
दुःख के मूल को मत सींचो आपको उसके मुलकारण कर्म आदि को मिटाना होगा । यही
अतः दुःख को मिटाना चाहते हैं, तो और कर्म के मूलकारण राग, द्वेष, मोह बात वज्जियपुत्त महर्षि कहते हैं
मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फलं । फलत्थी सिंचते मूलं, फलघाती न सिचति ॥७॥
मूल का सिंचन करने पर फल पैदा होगा और मूल को नष्ट करने पर फल स्वतः ही नष्ट हो जायेगा । जो फलार्थी है, वह मूल को सींचता है, परन्तु जो फल को नष्ट करना चाहता है, वह मूल को नहीं सींचता । राग-द्वेष-मोहरूप वासना की विषलता के दो फल हैं - सुख और दुःख | जिसे दुःखरूप फल को नष्ट करना है, उसे दुःख के मूल को ढूंढ़कर उसे उखाड़ फेंकना होगा । जब मूल ही नहीं होगा तो अंकुर कहाँ से फूटेगा और अंकुर नहीं फूटेगा तो वृक्ष कैसे होगा ? वृक्ष नहीं होगा तो उसके पत्ते, फूल और फल कहाँ से आयेंगे ?
देवलोक का सुख भी दुःखरूप ही है कहा जा सकता है कि देवलोक में देवों को दिव्य सुख प्राप्त है । फिर भगवतीसूत्र में चौबीस दण्डकों का विचार करते हुए देवों को दुःखी क्यों कहा गया ?
इसका समाधान यह है कि कर्म स्वयं दुःखरूप हैं और देव भी कर्म से विमुक्त नहीं हैं, उन्हें भी दुःखी कहा है। यह बात दूसरी है कि प्रचुर सातावेदनीय कर्म के उदय से उन्हें कर्मों का दुःख दुःख मालूम नहीं होता । परंतु शुभ हो या अशुभ दोनों प्रकार के कर्म दुःख के ही कारण हैं । और जन्म-मरणादि का दुःख कर्मजनित होने से उसे भी दुःखरूप कहा गया है । इसी कारण देवों को दुःखी कहा गया है ।