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दुःख के मूल : समझो और तोड़ो ४१
भूल जाता है, मगर इतना दुःख होते हुए तथा वैषयिक सुख होते हुए भी तथा सुख प्राप्ति की लगातार कोशिश के बाद भी मानव दुःख क्यों पाते हैं ? तथा दुःखनाश का उपाय क्या है ? प्रश्न का समाधान अर्हतषिवज्जियपुत्त ने किया है
च संसारे, अण्णाण
दुक्ख मूले समज्जियं । मिगारिव्व सरूप्पत्ती, हण कम्माणि मूलतो ॥ ८ ॥ एवं से सिद्ध बुद्ध विरत्ते विपावे दंते दविए अलंताती ।
णो पुणरवि इच्चत्थं हव्वमागच्छति ॥ & ॥ त्तिबेमि इस दुःखमूलक संसार में ( आत्मा ) अज्ञान के कारण (संसार सागर में डूबा हुआ है । अत: जैसे सिंह बाण के उत्पत्तिस्थल (फैंकने वाले) पर प्रहार करता है, इसी प्रकार ( दुःखमुक्त होने वाले) व्यक्ति को दुखोत्पत्ति के कारणभूत कर्मों को समूल नष्ट करना चाहिए ।
- सर्वथा दुःखमुक्त आत्मा सिद्ध, बुद्ध, विरत, निष्पाप, दान्त, द्रव्य, अलतायी (सर्वथा कर्मरहित होने के कारण ) इस संसार में पुन: नहीं
आता ।
संसार दुःखमूलक है, फिर भी आत्मा इसमें अज्ञानवश पड़ा हुआ है । दुनिया के दुःखपूर्ण तत्त्वों में उसे सुख का आभास होता है। यही तो अज्ञान है, और इसी के फलस्वरूप दुःख में सुख की अभिनिवेशात्मक बुद्धि ही जन्म-मरणरूप संसार का मूल हेतु है । यों तो आत्मा कर्मों को प्रतिक्षण नष्ट कर रहा है, किन्तु वह उनके मूल को नष्ट नहीं करता । बन्धुओ !
कर्मबन्ध के मूल हेतु राग-द्वेष, अज्ञान, मोहादि को समाप्त करके ही व्यक्ति दुख के मूलहेतु कर्म और उसके फल ( दुःख) को समाप्त कर सकता है; इसमें कोई सन्देह नहीं । ऐसी आत्मा जन्म-मरणरूप संसार में फिर नहीं आती ।