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अमर दीप
भी आपके तुल्य (समकक्ष) हो जाते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो अपने आश्रित भक्त को अपने समान नहीं
बनाता ।
यहाँ देवल अर्हतषि ने दो प्रकार के आत्माओं की स्थिति का दिग्दर्शन करा दिया है । उसका निष्कर्ष यही है कि लेप से लिप्त आत्माएँ अनन्त, चातुर्गतिक संसार में भटकती रहती हैं, जबकि लेप से रहित हो जाने पर वे संसार सागर को पार करके अव्याबाध शाश्वत मोक्ष स्थान को प्राप्त कर लेती है | भक्ति की भाषा में कहें तो यों कह सकते हैं - वह संसारी आत्मा से परमात्मा बन जाता है, भक्त से मुक्त भगवान् बन जाता है, ज्योति (आत्मज्योति) परम ज्योति ( परमात्मज्योति ) बन जाती है ।
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लेप से उपरत होने का सन्देश
देवल ऋषि प्रस्तुत पाठ में लेप से लिप्त जीवों को सम्बोधित करते हुए आश्वासन की भाषा में कहते हैं - ' अनेक जन्म-मरणों के कारण भयावह बने हुए अनादि-अनन्त इस संसार सागर को तुम भी पार कर सकते हो, बशर्ते कि तुम लेप से रहित हो जाओ ।
मनुष्यो ! ऐसी बात नहीं है कि तुम सदा-सदा के लिए संसारी ही बने रहो। तुम भी एक दिन आत्मा से परमात्मा बन सकते हो । अगर तुम अपनी आत्मा पर लगे हुए लेपों को हटाने का पुरुषार्थ करो तो वह दिन दूर नहीं, जब तुम सर्वथा निर्लिप्त निरंजन निराकार सिद्ध- परमात्मा बन सकते हो ।
जैन धर्म इतना उदार धर्म है कि वह स्वतीर्थ, परतीर्थ, (स्वसंघपरसंघ), स्वलिंग-अन्यलिंग, स्त्री-पुरुष नपुंसक, गृहिलिंग, आदि पन्द्रह प्रकार से सिद्ध - बुद्ध - मुक्त होने का उद्घोष करता है
कोई भी दूसरी शक्ति या विभूति तुम्हें तार देगी, या संसार सागर से पार कर देगी, यह सोचना युक्तिसंगत नहीं होगा । मनुष्य अपने ही पुरुषार्थ से तरता है और अपने ही पुरुषार्थ से डूबता है । कर्मबन्धन और कर्ममुक्ति दोनों उसके हाथ में हैं । तात्विक दृष्टि से सोचें तो आत्मा जब तक विभाव-परिणति में लिप्त है, तब तक वह परमात्मतत्व से दूर है, किन्तु स्वभाव परिणति में आ जाने पर वह परमात्मतत्व के निकट है, निकट ही क्या, स्वयं परमात्मा है । आत्मा का यह शुद्ध स्वभाव ही परमात्मा है । जब तक आत्मा लेप से युक्त है, तब तक उसका रूप अशुद्ध है, वह संसारी आत्मा है और जब वह लेपरहित हो जाता है, तब विकाररहित निर्लेप,