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४० अमर दीप . .
गले में सेर-दो सेर लोहा लटका दिया जाये तो दुःख प्रतीत होगा, किंतु उतने ही वजन का सोने का हार गले में पहन लिया जाय तो दुःखरूप नहीं मालूम होगा। इसका कारण है, सोने के प्रति मोह । भार की दृष्टि से लोहा और सोना समान ही हैं। इसी प्रकार ससार का दुःख तो दुःख है ही, संसार का सुख भी दुःख ही है। जब देवों को भी दुःखी कहा गया है तो संसार में अपने आपको सुखी कहने का दावा कौन कर सकता है ? इसीलिए एक विचारक कहता है
सर्वत्र सर्वस्य सदा प्रवृत्तिर्दु:खस्य नाशाय सुखस्य हेतोः। तथाऽपि दुःखं न विनाशमेति, सुखं न कस्यापि भजेत् स्थिरत्वम् ॥
-छोटे से छोटे कीट से लेकर देवेन्द्र तक सर्वत्र सभी जीवों की प्रवृत्ति सदैव दुःख के निवारण और सुख की प्राप्ति के लिए होती है तथापि . न तो दुःख नष्ट होता है, और न किसी भी संसारी जीव को चिरस्थायी सुख प्राप्त होता है। ___ अन्य प्राणियों की बात जाने दें, मनुष्य जाति का ही विचार करें तो उसके सामने भी शारीरिक, मानसिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, आर्थिक आदि सैकड़ों प्रकार के दुःख मुंह बाए खड़े हैं । एक दुःख का अन्त नहीं आता, तब तक दूसरा और तीसरा दुःख आ धमकता है । नीतिकार कहते
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एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं, गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य ।
तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे, छिद्रष्वनर्था बहुलीभवन्ति ॥
-समुद्र के पार पाने की तरह, मैंने एक दुःख का अन्त (पार) नहीं पाया, तब तक तो दूसरा दुःख आकर उपस्थित हो गया । सच है, जहाँ छिद्र होते हैं, वहाँ बहुत अनर्थ होते हैं। छेद वाली चलनी में से पानी झरता ही रहता है।
जैसे-एक व्यक्ति को बुखार आता था, उसने बुखार के मूल कारण को दूर न करके बुखार मिटाने हेतु ऐसे गलत उपचार किये जिससे बुखार अधिकाधिक बढ़ता ही गया। धीरे-धीरे दूसरे वर्ष उस बुखार ने टी. बी. का रूप धारण कर लिया। इस प्रकार ज्वर का दुःख फिर तपेदिक रोग का दुःख, तदनन्तर खांसी, दुर्बलता, मस्तिष्क पीड़ा, स्मृति-मन्दता, आदि एक के बाद एक रोगरूप दुःख बढ़ते ही गए।
क्या आप बता सकते हैं कि एक के बाद एक आ पड़ने वाले इन दुःखों का कारण क्या है ? ऋषि कहते हैं कि इन दुःखों का कारण यह है कि मनुष्य सांसारिक सुखों में ग्रस्त होकर दुःखों के मूल कारण की खोज करना