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अमर दीप
साथ मनन और आचरण अवश्य होना चाहिए। जैन शास्त्र स्थानांग सूत्र ( स्थान २ / १ / ६६ ) इस बात का साक्षी है
'दो ठाह आया केवलिपण्णत्ते धम्मं लभेज्जा, सवणयाए, सोच्चा चैव, अभिसमेच्चा चेव ।'
'आत्मा दो कारणों से केवलि - प्रज्ञप्त धर्म को श्रवण की भाव-परिगति के रूप में प्राप्त कर सकता है । वह इस प्रकार -- सुनकर और समझ कर ।'
तं०
हिमालय के शिखर की ऊँचाई इतनी है और इस इस मार्ग से तथा इस- इस विधि से उस पर चढ़ना चाहिए, इसका वर्णन कहने-सुनने में कोई अधिक समय नहीं लगता । ऐसी बातें किताबों, पत्रों या रेडियो आदि से सुनी भी जा सकती हैं। परन्तु हिमालय पर यदि आपके पैर चढ़ना चाहेंगे तो आपको कितनी तैयारी करनी पड़ेगी ? कितनी कठिनाइयों और विघ्नों-संकटों से जूझते हुए आपको चढ़ाई सफल करनी होगी ? वह एक दीर्घकालीन साहसिक महायात्रा कहलाएगी। परन्तु आप अनुमान लगाइए कि कानों से हिमालय के शिखर का वर्णन सुनने की अपेक्षा हिमालय पर पैरों से चढ़ने का महत्त्व कई गुना अधिक है । अर्थात् - कानों की अपेक्षा पैरों का उत्तरदायित्व कई गुना अधिक है। पैरों का काम कानों से श्रवणकार्य की अपेक्षा कठिन, श्रमसाध्य और साहसपूर्ण भी है । किन्तु एक बात निश्चित है कि श्रवण के बाद पैर जब उस निर्दिष्ट या प्रदर्शित पथ पर एक बार चलना शुरू कर देते हैं और कुछ हद तक चल चुकते हैं, तब आप में नया जोश, नई उमंग, नयी स्फूर्ति, नया आल्हाद तथा दृढ़ आत्मविश्वास पैदा हो जाता है । आपके मन में उस श्रवणगोचर विषय के प्रति गाढ़ श्रद्धा पैदा हो जाती है कि हम भी इस मंजिल को पार कर सकते हैं ।
श्रवण दही और आचरण नवनीत है
अतर्षि नारद इस अध्ययन में सर्वप्रथम श्रोतव्य श्रवण का महत्त्व बताकर तदनुसार आचरण की ओर इंगित कर रहे हैं । उनका अभिप्राय जिज्ञासु और मुमुक्षु श्रोता को अपने साध्य या ध्येय की बात श्रवण करके बिठा देने या श्रवण में इति समाप्ति करा देने की नहीं है। हाँ, कदाचित् वह सुनी हुई बात को समझना चाहे, उस विषय में स्पष्टीकरण करना चाहे तो थोड़ा-सा विश्राम ले सकता है, परन्तु यदि वह श्रवण और मनन के बाद श्रोतव्य विषय को हृदयंगम कर चुका है तो उसे अधिक रुकने की आवश्यकता नहीं अपने लक्ष्यबिन्दु की ओर तुरन्त कदम बढ़ाने चाहिए ।