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अमर दीप
___ सोलन ने उसे शांति से समझाया--"जब तक तुम्हारे मन में शरीर और शरीर से सम्बन्धित स्वजन आदि सजीव और घर, दूकान, मकान, धन-सम्पत्ति, यहाँ तक कि अपने माने हुए सम्प्रदाय, जाति, भाषा, प्रान्त, मत आदि के प्रति अहंत्व, ममत्व और मोह रहेगा तब तक सुख और शांति तुम से कोसों दूर रहेगी।" ____यह सुनकर दुखी मनुष्य सुख के इस मूल मन्त्र को पाकर प्रसन्नता से बिदा हुआ। दुःख के कारणों में सुख कहाँ ?
बन्धुओ ! वास्तव में दुःख के जो कारण हैं, उन पदार्थों में सुख ढूंढने वाला मानव कैसे सुख प्राप्त कर सकेगा ?
जो परभाव या परवस्तु है, आत्मा तथा आत्म-गुणों से भिन्न वस्तु है, उसके प्रति मोह, ममत्व, अहंत्व आदि दुःख के कारणों को दूर किये बिना जो मानव इनमें ही सुख ढूंढ़ता है, उसका पुनः-पुनः दुखी होना आश्चर्य की बात नहीं है।
वर्तमान युग का मनुष्य दुःख तो कतई नहीं चाहता, परन्तु उसके कारणभूत अज्ञान, भ्रम या मोह को नहीं छोड़ना चाहता। परिणाम यह होता है कि वह घूम-फिर कर पुनः दुःख के चक्र में फँस जाता है। इसीलिए वज्जियपुत्त अहंतषि कहते हैं--.
दुक्खा परिवित्तसंति पाणा, मरणा जम्मभया य सम्वसत्ता।
तस्सोवसमं गवेसभाणा, अप्पे आरंभभीरुए ण सत्ते ॥ अर्थात्-प्राणी दुःख से परित्रसित हैं । मृत्यु और जन्म के भय से समस्त प्राणी प्रकम्पित हैं । वे दुःख के उपशमन की खोज में लगे हैं, परंतु (उसके कारणभूत) आरम्भ से जरा भी नहीं डरते।
दुःख को उपशान्त करने के लिए समस्त आत्माएँ यत्र-यत्र भ्रमण कर रही हैं । अनन्त युग बीत गये हैं । आज तक मानव का लक्ष्य अशांति से हटकर शांति की खोज रहा है ; किंतु आज तक उसने भूलें ही की हैं, दुःख के कारणों को समझने में । उसका पुरुषार्थ पानी का विलोवन मात्र रहा है। इसी कारण वह दुःख के बाहरी कारणों से बचता रहा ; किन्तु उसके उपादान से चिपटा रहा। सुख के लिए वह आरम्भ करता है, किंतु वह आरम्भ ही दुःख का मूल है । भगवान् महावीर से पूछा गया
से णं भते ! दुक्खे केण कडे ?