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श्रवण का प्रकाश; आचरण में...
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पर विजय पाने के लिये तया शास्त्र वाचना के उपलक्ष में आयम्बिल तप अमुक अवधि तक करना होता है । परन्तु यहाँ नारदऋषि भाव-उपधान का वर्णन करते हुए सत्य, दत्त और ब्रह्मचर्य को उपधान बताते हैं। जो श्रोतव्य साधक सत्य, दत्त और ब्रह्मचर्य की उपासना करता है, उसे उपधानवान् कहते हैं।
___ मैंने पहले जिन ४ श्रोतव्यों का वर्णन किया था, उन्हें ग्रहण करने वाले साधक के लिये अर्हतर्षि नारद कहते हैं
सव्वं सोयव्वमादाय अउयं उपहाणवं ।
सव्वदुक्ख-पहोणे उ सिद्ध भवति णीरए ॥ समस्त श्रोतव्यों को ग्रहण करके साधक प्रशंसनीय उपधानवान् (तपस्वी) बनता है। फिर वह समस्त दुःखों से मुक्त एवं सिद्ध हो जाता है, तथा कर्म-रज से भी रहित हो जाता है ।
वास्तव में वही साधक प्रशंसनीय उपधानवान् (तपस्वी) कहलाता है जो श्रोतव्य श्रवण किये हुए यो जीवन में उतारता है । जो सुनकर जीवन में नहीं उतारता, उसके लिए वह श्रवण किया हुआ ज्ञान केवल भाररूप हो जायेगा । जैसा कि कहा है
ज्ञानं भारः क्रियां बिना। क्रियान्वित किये बिना ज्ञान भाररूप होता है। ज्ञान के भार में बड़प्पन का अहंकार भले ही हो, आनन्द नहीं मिल सकता । सुने हुए ज्ञान को आचरण में न लाने को व्यर्थश्रम की उपमा देते हुए एक विचारक कहता है
'दो व्यक्ति व्यर्थ ही श्रम करते हैं। एक तो वह जो पैसा एकत्रित करता है, पर उसका उपयोग नहीं करता। दूसरा वह, जो अध्ययन करता है, पर उसे जीवन में नहीं उतारता ।'
. अर्हतर्षि नारद के मतानुसार ऐसा उपधानवान श्रोतव्य साधक शान्त, दान्त, (सब पापों से) विरत, निष्पाप, समर्थ, त्यागी, आत्मरक्षा करने में समर्थ होता है । वह फिर भव-परम्परा के चक्र में नहीं फँसता ।
धर्मश्रवणानुरूप आचरण ही श्रेयस्कर प्रिय श्रोताजनो!
__मैंने आपके समक्ष श्रोतव्य श्रवण के अनुरूप ब्रतादि का आचरण एवं शम-सम-दमादि की साधना करने वाले साधक को मोक्ष रूप उत्तम फल को प्राप्ति का वर्णन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसा सर्वो