________________
१२ अमर वीप करता है, उसकी बुद्धि सूर्य-किरणों से विकसित होने वाले कमल के समान बढ़ती रहती है-खिलती है।
निष्कर्ष यह है कि मन को सुशिक्षित करना हो तथा बुद्धि को विकसित करना हो तो धर्मोपदेश-श्रवण एक सर्वश्रेष्ठ उपाय है। श्रवण का महत्व और लाभ
भगवान महावीर ने श्रवण के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा
है
सोच्चा जाणइ कल्लागं, सोच्चा जाणइ पावगं ।
उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ (दशवै० ४/११) सुनकर ही मनुष्य कल्याण को जान सकता है और सुनकर ही पाप को पहचान सकता है । अर्थात् पुण्य और पाप अथवा श्रेय और प्रेय दोनों का ज्ञान श्रवण करने से ही होता है, दोनों को जानकर व्यक्ति जो श्रेय है, उसका समाचरण कर पाता है।
श्रोतव्य-श्रवण का महत्व इसलिए भी है कि कानों के रास्ते से ज्ञान की धारा हृदय में उतरती है। वह हृदय ज्ञानधारा से सरसब्ज, कोमल और मृदु हो जाता है। फिर उस हृदय में सदाचरण की फसल लहलहाती है। श्रवण बीज है तो सदाचरण पल्लवित वृक्ष है। जिस प्रकार नदी की जलधारा जिस तट पर बहती है, उस पर सदैव हरियाली छायी रहती है। उस नदी के तट की भूमि सदैव तर और उपजाऊ रहती है । इसी प्रकार जिस हृदयतट के समीप ज्ञान-श्रवण रूप जलधारा बहती हैं, वह हृदय भी सदा तर, सरसब्ज और कोमल रहता है, वहां धर्माचरण का उत्पादन प्रचुर मात्रा में मिलता है।
भारतवर्ष के प्रसिद्ध नीतिकार चाणक्य ने भी 'चाणक्यनीति' (१६/१) में श्रवण का महत्व बताते हुए कहा है
श्रुत्वा धर्म विजानाति, श्रुत्वा जानाति दुर्मतिम् ।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति, श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ॥ मनुष्य सुनकर ही धर्म (जीवन के श्रेय) को जानता है और सुनकर ही वह दुर्बुद्धि-पापमति को जान सकता है । श्रवण करने से ही मनुष्य सद्ज्ञान प्राप्त कर पाता है और श्रवण करने से ही क्रमशः मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
पंजाब के एक चिन्तनशील कवि ने धर्मश्रवण की महत्ता को उजागर करते हुए कहा है