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श्रवण : निर्वाण पथ का पहला दीपक &
परम आत्माओं के नामश्रवण या धर्मश्रवण की अपेक्षा या तो मोहवर्द्धक बातें सुनते-सुनाते हैं, या फिर अपने स्वार्थ की ही बातें सुनते-सुनाते हैं । आप में से कितने ऐसे लोग हैं, जो अश्रोतव्य शब्दों को न सुनकर दिन और रात में श्रोतव्य शब्दों को ही अपने कानों में प्रवेश करने देते हैं । श्रोतव्य श्रवण ही सत्यश्रवण और पवित्र है।
नारद ऋषि के कहने का तात्पर्य यही है कि अमुल्य मानव-जीवन मिला है तो श्रोतव्य का श्रवण करो । यह तुम्हारे जीवन का पवित्र पाथेय है । पवित्र श्रवण ही तुम्हारी बुद्धि, हृदय, मन, प्राण और इन्द्रियों को पवित्र बना सकता है, वही तुम्हारे अज्ञात मन में सुसंस्कारों का सिंचन कर सकता है । इसीलिए महर्षियों ने सर्वप्रथम श्रोतव्य श्रवण का उपदेश दिया है ।
इस अध्ययन के प्रवक्ता देवर्षि नारद के विषय में भी कुछ बता दूँ । ऋषिभाषित की टीका में एक कथा आती है, जिसका सारांश इस प्रकार है
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एक बार भगवान महावीर के दो शिष्य - धर्मघोष और धर्मंयश सोरियपुर नगर के बाहर वन में ध्यान-साधना कर रहे थे । वे एक वृक्ष के नीचे ठहरे । मध्यान्ह काल हुआ तब भी उस वृक्ष की छाया ढली नहीं, जैसी सुबह थी वैसी ही स्थिर रही। यह देखकर मुनियों को बड़ा आश्चर्य हुआ । दोनों एक दूसरे से पूछने लगे - क्या यह आपकी तपोलब्धि का प्रभाव है ? दोनों ही क्रमश वहाँ से हटे, तब भी छाया स्थिर रही। उन्हें बड़ा कुतूहल हुआ । भगवान के पास आये और पूछा तो भगवान महावीर ने बतायाआज से बहुत समय पहले की बात है । सोरियपुर में राजा समुद्रविजय के शासन में यज्ञदत्त तापस रहते थे । वे एक दिन पूर्वाह्न में अशोक वृक्ष के नीचे अपने नन्हे शिशु नारद को सुलाकर खेत में धान्य कण चुनने चले गये । सूर्य पूर्व से पश्चिम की ओर ढलने लगा तो बालक पर सूर्य की तेज किरणें गिरने लगीं ।
तब उस समय वैश्रमण जाति के जृम्भक देव उधर से निकले । वृक्ष की छाया में एक तेजस्वी शिशु को अकेला सोया देखकर वे वहाँ रुक गये। बालक के प्रति उनके हृदय में सहज ही स्नेह उमड़ आया । जब अवधिज्ञान लगाकरे देखा तो पता चला, यह शिशु हमारे जृम्भक देवनिकाय से च्यवकर ही यहाँ आया है तो एक प्रकार से हमारी बिरादरी का ही है । इसलिए देवताओं ने वृक्ष की छाया को स्थिर कर दिया, बालक की देह पर अब छाया स्थिर हो गई । तब से इस वृक्ष की छाया स्थिर है ।