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अन्तकृद्दशा - ५/१/२०
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तब कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्टनेमि को इस प्रकार बोले- "हे भगवन् ! यहाँ से काल के समय काल कर मैं कहाँ जाऊंगा, कहां उत्पन्न होऊंगा ?” अरिष्टनेमि भगवान् ने कहाहे कृष्ण ! तुम सुरा, अग्नि और द्वैपायन के कोप के कारण इस द्वारका नगरी के जल कर नष्ट हो जाने पर और अपने माता-पिता एवं स्वजनों का वियोग हो जाने पर राम बलदेव के साथ दक्षिणी समुद्र के तट की ओर पाण्डुराजा के पुत्र युधिष्ठिर आदि पाचों पांडवों के समीप पाण्डु मथुरा की ओर जाओगे । रास्ते में विश्राम लेने के लिये कौशाम्ब वन उद्यान में अत्यन्त विशाल एक वटवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्ट पर पीताम्बर ओढकर तुम सो जाओगे । उस समय मृग के भ्रम में जराकुमार द्वारा चलाया हुआ तीक्ष्ण तीर तुम्हारे बाएं पैर में लगेगा । इस तीक्ष्ण तीर से विद्ध होकर तुम काल के समय काल करके वालुकाप्रभा नामक तीसरी पृथ्वी में जन्म लोगे । प्रभु के श्रीमुख से अपने आगामी भव की यह बात सुनकर कृष्ण वासुदेव खिन्नमन होकर आर्त्तध्यान करने लगे ।
तब अरिहंत अरिष्टनेमि पुनः बोले- "हे देवानुप्रिय ! तुम खिन्नमन होकर आर्त्तध्यान मत करो । निश्चय से कालान्तर में तुम तीसरी पृथ्वी से निकलकर इसी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में आने वाले उत्सर्पिणी काल में पुंड्र जनपद के शतद्वार नगर में "अमम" नाम के बारहवें तीर्थंकर बनोगे । वहाँ बहुत वर्षों तक केवली पर्याय का पालन कर तुम सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होओगे ।" अरिहंत प्रभु के मुखारविन्द से अपने भविष्य का यह वृत्तान्त सुनकर कृष्ण वासुदेव बड़े प्रसन्न हुए और अपनी भुजा पर ताल ठोकने लगे । जयनाद करके त्रिपदी - भूमि में तीन बार पाँव का न्यास किया - कूदे । थोड़ा पीछे हटकर सिंहनाद किया और फिर भगवान् नेमिनाथ को वंदन नमस्कार करके अपने अभिषेक योग्य हस्तिरत्न पर आरूढ हुए और द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए अपने राजप्रासाद में आये । अभिषेकयोग्य हाथी से नीचे उतरे और फिर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहां आये । वे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजमान हुए । फिर अपने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाकर बोले
देवानुप्रियो ! तुम द्वारका नगरी के श्रृंगाटक आदि में जोर-जोर से घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो कि - " हे द्वारकावासी नगरजनो ! इस बारह योजन लंबी यावत् प्रत्यक्ष-स्वर्गपुरी के समान द्वारका नगरी का सुरा, अग्नि एवं द्वैपायन के कोप के कारण नाश होगा, इसलिये हे देवानुप्रियो ! द्वारका नगरी में जिसकी इच्छा हो, चाहे वह राजा हो, युवराज हो, ईश्वर हो, तलवर हो, माडंबिक हो, कौटुम्बिक हो, इभ्य हो, रानी हो, कुमार हो, कुमारी हो, राजरानी हो, राजपुत्री हो, इनमें से जो भी प्रभु नेमिनाथ के निकट मुण्डित होकर यावत् दीक्षा लेना चाहे, उसे कृष्ण वासुदेव ऐसा करने की आज्ञा देते हैं । दीक्षार्थी के पीछे उसके आश्रित सभी कुटुंबीजनों की भी श्रीकृष्ण यथायोग्य व्यवस्था करेंगे और बड़े ऋद्धि-सत्कार के साथ उसका दीक्षा - महोत्सव संपन्न करेंगे ।" इस प्रकार दो-तीन बार घोषणा को दोहरा कर पुनः मुझे सूचित करो ।” कृष्ण का यह आदेश पाकर उन आज्ञाकारी राजपुरुषों ने वैसी ही घोषणा दो-तीन बार करके लौटकर इसकी सूचना श्रीकृष्ण को दी ।
इसके बाद वह पद्मावती महारानी भगवान् अरिष्टनेमि से धर्मोपदेश सुनकर एवं उसे हृदय में धारण करके प्रसन्न और सन्तुष्ट हुई, उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा । यावत् वह अरिहंत नेमिनाथ को वंदना - नमस्कार करके इस प्रकार बोली- भंते ! निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं श्रद्धा