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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
जा रहा है । अतएव हे देवानुप्रियो ! आप लोग समस्त ऋद्धि यावत् अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने यान-विमानों में बैठकर बिना विलंब के तत्काल सूर्याभ देव के समक्ष उपस्थित हो जाओ।
[१२] तदनन्तर सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार से आज्ञापित हुआ वह पदात्यनीकाधिपति देव सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्ल-हृदय हुआ और विनयपूर्वक आज्ञावचनों को स्वीकार करके सूर्याभ विमान में जहाँ सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ मेघमालावत् गम्भीर मधुर ध्वनि करने वाली योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा थी, वहाँ आकर सुस्वर घंटा को तीन बार बजाया । तब उसकी ध्वनि से सूर्याभ विमान के प्रासादविमान आदि से लेकर कोने-कोने तक के एकान्तशांत स्थान लाखों प्रतिध्वनियों से गूंज उठे । तब उस सुस्वर घंटा की गम्भीर प्रतिध्वनि से सदा सर्वदा रति-क्रिया में आसक्त, नित्य प्रमत्त, एवं विषयसुख में मूर्च्छित सूर्याभविमानवासी देवों और देवियों ने घंटानाद से शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होकर घोषणा के विषय में उत्पन्न कौतूहल की शांति के लिए कान और मन को केन्द्रित किया तथा घंटारव के शांतप्रशांत हो जाने पर उस पदात्यानीकाधिपति देव ने जोर-जोर से उच्च शब्दों में उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहा
आप सभी सूर्याभविमानवासी वैमानिक देव और देवियां सूर्याभ विमानाधिपति की इस हितकारी सुखप्रद घोषणा को हर्षपूर्वक सुनिये हे देवानुप्रियो ! सूर्याभदेव ने आप सबको आज्ञा दी है कि सूर्याभदेव जम्बूद्वीप में वर्तमान भरतक्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान् महावीर की वन्दना करने के लिए जा रहे हैं । अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सभी समस्त ऋद्धि से युक्त होकर अविलम्ब सूर्याभदेव के समक्ष उपस्थित हो जायें ।
[१३] तदनन्तर पदात्यनीकाधिपति देव से इस बात को सुनकर सूर्याभविमानवासी सभी वैमानिक देव और देवियां हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय हो, कितने वन्दना करने के विचार से, कितने पर्युपासना की आकांक्षा से, कितने सत्कार की भावना से, कितने सम्मान की इच्छा से, कितने जिनेन्द्र भगवान् प्रति कुतूहलजनित भक्ति-अनुराग से, कितने सूर्याभदेव की आज्ञापालन के लिए, कितने अश्रुतपूर्व को सुनने की उत्सुकता से, कितने सुने हुए अर्थविषयक शंकाओं का समाधान करके निःशंक होने के अभिप्राय से, कितने एक दूसरे का अनुसरण करते हुए, कितने जिनभक्ति के अनुराग से, कितने अपना धर्म मानकर और कितने अपना परम्परागत व्यवहार समझकर सर्व कृद्धि के साथ यावत् बिना किसी विलम्ब के तत्काल सूर्याभदेव के समक्ष उपस्थित हो गये ।
[१४] इसके पश्चात् विलम्ब किये बिना उन सभी सूर्याभविमानवासी देवों और देवियों को अपने सामने उपस्थित देखकर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हो सूर्याभदेव ने अपने आभियोगिक देव को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट एक यान की विकुर्वणा करो । जिसमें स्थान-स्थान पर हाव-भाव-विलास लीलायुक्त अनेक पुतलियां स्थापित हों । ईहामृग, वृषभ, तुरग, नर, मगर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित हों । जो स्तम्भों पर बनी वज्र रत्नों की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखलाई दे । समश्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यंत्रचालित-जैसे दिखलाई दें । हजारों किरणों से व्याप्त एवं हजारों रूपकों से युक्त होने से जो देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान जैसा प्रतीत हो । देखते ही दर्शकों के