Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 236
________________ राजप्रश्नीय ४० २३५ सुधर्मा - सभा के समान ही इस उपपात सभा का वर्णन समझना । मणिपीठिका की लम्बाईचौड़ाई आठ योजन की है और सुधर्मा -सभा में स्थित देवशैया के समान यहां की शैया का ऊपरी भाग आठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछ्त्रों से शोभायमान हो रहा है । उस उपपातसभा के उत्तर-पूर्व दिग्भाग में एक विशाल हृद है । इस हद का आयाम एक सौ योजन एवं विस्तार पचास योजन है तथा गहराई दस योजन है । यह हद सभी दिशाओं में एक पद्मवरवेदिका एवं एक वनखण्ड से परिवेष्टित हुआ है तथा इस हद के तीन ओर अतीव मनोरम त्रिसोपान - पंक्तियाँ हुई हैं । उस हद के ईशानकोण में एक विशाल अभिषेकसभा है । सुधर्मा-सभा के अनुरूप ही यावत् गोमानसिकायें, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, यावत् मुक्तादाम हैं, इत्यादि इस अभिषेक सभा का भी वर्णन जानना । वहां सूर्याभदेव के अभिषेक योग्य सामग्री से भरे हुए बहुत-से भाण्ड रखे हैं तथा इस अभिषेक-सभा के ऊपरी भाग में आठ-आठ मंगल आदि सुशोभित हो रहे हैं । उस अभिषेकसभा के ईशान कोण में एक अलंकार-सभा है । सुधर्मासभा के समान ही इस अलंकार - सभा का तथा आठ योजन की मणिपीठिका एवं सपरिवार सिंहासन आदि का वर्णन समझना । अलंकारसभा में सूर्याभदेव के द्वारा धारण किये जानेवाले अलंकारों से भरे हुए बहुत-से अलंकार रखे हैं । शेष सब कथन पूर्ववत् । उस अलंकारसभा के ईशानकोण में एक विशाल व्यवसायसभा बनी है । उपपातसभा के अनुरूप हो यहाँ पर भी सपरिवार सिंहासन, मणिपीठिका आठ-आठ मंगल आदि का वर्णन कर लेना । उस व्यवसायसभा में सूर्याभ देव का विशाल श्रेष्ठतम पुस्तकरन रखा है । इसके पूठे रिष्ठ रत्न के हैं । डोरा स्वर्णमय है, गांठें विविध मणिमय हैं । पत्र रत्नमय हैं । लिप्यासन वैडूर्य रत्न की है, उसका ढक्कन रिष्टरत्नमय है और सांकल तपनीय स्वर्ण की बनी हुई है । रिष्टरत्न से बनी हुई स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी है । रिष्टरत्नमय अक्षर हैं और उसमें धार्मिक लेख हैं । व्यवसाय - सभा का ऊपरी भाग आठ-आठ मंगल आदि से सुशोभित हो रहा है । उस व्यवसाय - सभा में उत्तरपूर्वदिग्भाग में एक नन्दा पुष्करिणी है । हद के समान इस नन्दा पुष्करिणी का वर्णन जानना । उस नन्दा पुष्करिणी के ईशानकोण में सर्वात्मना रत्नमय, निर्मल, यावत् प्रतिरूप एक विशाल बलिपीठ बना है । [४१] उस काल और उस समय में तत्काल उत्पन्न होकर वह सूर्याभ देव आहार पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति, इन्द्रिय-पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति और भाषामनः पर्याप्ति- इन पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त हुआ । पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त होके के अनन्तर उस सूर्याभदेव को इस प्रकार का आन्तरिक विचार, चिन्तन, अभिलाष, मनोगत एवं संकल्प उत्पन्न हुआ कि मुझे पहले क्या करना चाहिये ? और उसके अनन्तर क्या करना चाहिये ? मुझे पहले क्या करना उचित है ? और बाद में क्या करना उचित है ? तथा पहले भी और पश्चात् भी क्या करना योग्य है जो मेरे हित के लिये, सुख के लिये, क्षेम के लिए, कल्याण के लिये और अनुगामी रूप से शुभानुबंध का कारण होगा ? तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देव सूर्याभदेव के इस आन्तरिक विचार यावत् उत्पन्न संकल्प को अच्छी तरह से जानकर सूर्याभदेव के पास आये और उन्होंने दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से सूर्याभदेव को अभिनन्दन करके इस प्रकार कहा- आप देवानुप्रिय के सूर्याभविमान स्थित सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण वाली एक सौ आठ जिन - प्रतिमायें बिराजमान हैं तथा सुधर्मा सभा के माणवक

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