Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 272
________________ राजप्रश्नीय-८३ २७१ ५१. शकटव्यूह, ५२. युद्ध, ५३. नियुद्ध, ५४. युद्ध-युद्ध, ५५. अट्ठि-युद्ध, ५६. मुष्ठियुद्ध, ५७. बाहुयुद्ध, ५८. लतायुद्ध, ५९. इष्वस्त्र, ६०. तलवार, ६१. धनुर्वेद, ६२. चांदीपाक, ६३. सोनापाक, ६४. मणियोंनिर्माण, ६५. धातुपाक, ६६. सूत्रलेख, ६७. वृत्तखेल, ६८. नालिकाखेल, ६९. पत्रछेदन, ७०. पार्वतीयभूमिछेदन, ७१. मूर्छित, ७२. शकुनज्ञान करना। तत्पश्चात् कलाचार्य उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को गणित प्रधान, लेखन से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलाओं को सूत्र से, अर्थ से, ग्रन्थ एवं प्रयोग से सिखला कर, सिद्ध कराकर माता-पिता के पास ले जायेंगे । तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक के माता-पिता विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाध रूप चतुर्विध आहार, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारों से कलाचार्य का सत्कार, सम्मान करेंगे और फिर जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देंगे । जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देकर विदा करेंगे । [८४] इसके बाद वह दृढ़प्रतिज्ञ बालक बालभाव से मुक्त हो परिपक्क विज्ञानयुक्त, युवावस्थासंपन्न हो जायेगा । बहत्तर कलाओं में पंडित होगा, बाल्यावस्था के कारण मनुष्य के जो नौ अंग-जागृत हो जायेंगे । अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में कुशल हो जायेगा, वह गीत का अनुरागी, गीत और नृत्य में कुशल हो जायेगा । अपने सुन्दर वेष से श्रृंगार का आगार-जैसा प्रतीत होगा । उसकी चाल, हास्य, भाषण शारीरिक और नेत्रों की चेष्टायें आदि सभी संगत होंगी । पारस्परिक आलाप-संलाप एवं व्यवहार में निपुण-कुशल होगा । अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहयुद्ध करने एवं अपनी भुजाओं से विपक्षी का मर्दन करने में सक्षम एवं भोग भोगने की सामर्थ्य से संपन्न हो जायेगा तता साहसी ऐसा हो जायेगा । भयभीत नहीं होगा । तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को बाल्यावस्था से मुक्त यावत् विकालचारी जानकर मातापिता विपुल अन्नभोगों, पानभोगों, प्रासादभोगा वस्त्रभागों और शय्याभोगों के योग्य भोगों को भोगने के लिये आमंत्रित करेंगे । तब वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्न रूप भोग्य पदार्थों यावत् शयन रूप भोग्य पदार्थों में आसक्त नहीं होगा, गृद्ध नहीं होगा, मूर्च्छित नहीं होगा और अनुरक्त नहीं होगा । जैसे कि नीलकमल पद्मकमल यावत सहस्रपत्रकमल कीचड में उत्पन्न होते हैं और ज वृद्धिंगत होते हैं, फिर भी पंकरज और जल रज से लिप्त नहीं होते हैं, इसी प्रकार वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक भी कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों के बीच लालन-पालन किये जाने पर भी उन कामभोगों में एवं मित्रों, ज्ञातिजनों, निजी-स्वजन-सम्बन्धियों और परिजनों में अनुरक्त नहीं होगा । किन्तु वह तथारूप स्थविरों से केवलबोधि प्राप्त करेगा एवं मुंडित होकर, अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करेगा । ईर्यासमिति आदि अनगार धर्म का पालन करते हुए सुहुत हुताशन की तरह अपने तपस्तेज से चमकेगा, दीप्त मान होगा । इसके हाथ ही अनुत्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अप्रतिबद्ध विहार, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति सर्व संयम एवं निर्वाण की प्राप्ति जिसका फल है ऐसे तपोमार्ग से आत्मा को भावित करते हुए भगवान् (दृढप्रतिज्ञ) को अनन्त, अनुत्तर, सकल, परिपूर्ण, निरावरण, नियाघात, अप्रतिहत, सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होगा । तब वे दृढ़प्रतिज्ञ भगवान् अर्हत्, जिन, केवली हो जायेंगे । जिसमें देव, मनुष्य तथा असुर आदि रहते हैं ऐसे लोक की समस्त पर्यायों को वे जानेंगे । आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, तर्क, क्रिया, मनोभावों, क्षयप्राप्त, प्रतिसेवित, आविष्कर्म, रहःकर्म आदि, प्रकट और गुप्त रूप से होने वाले उस-उस मन, वचन और कायभोग में विद्यमान लोकवर्ती सभी जीवों के सर्वभावों को जानते

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