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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[५१] उस प्रदेशी राजा का उम्र में बड़ा भाई एवं मित्र सरीखा चित्त नामक सारथी था । वह समृद्धिशाली यावत् बहुत से लोगों के द्वारा भी पराभव को प्राप्त नहीं करनेवाला था । साम-दण्ड-भेद और उपप्रदान नीति, अर्थशास्त्र एवं विचार-विमर्श प्रधान बुद्धि में विशारद था । औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी बुद्धियों से युक्त था । प्रदेशी राजा के द्वारा अपने बहुत से कार्यों में, रहस्यमय गोपनीय प्रसंगों में, निश्चय करने में, राज्य सम्बन्धी व्यवहार में पूछने योग्य था, बार-बार विशेष रूप से पूछने योग्य था । वह सबके लिये मेढी के समान था, प्रमाण था, पृथ्वी के समान आधार था, रस्सी के समान आलम्बन था, नेत्र के समान मार्गदर्शक था, सभी स्थानों मन्त्री, अमात्य आदि पदों में प्रतिष्ठा प्राप्त था । सबको विचार देनेवाला था तथा चक्र की धुरा के समान राज्य संचालक था ।
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[५२] उस काल और उस समय में कुणाला नामक जनपद- देश था । वह देश वैभवसंपन्न, स्तिमित-स्वपरचक्र के भय से मुक्त और धन-धान्य से समृद्ध था । उस कुणाला जनपद में श्रावस्ती नाम की नगरी थी, जो क्रुद्ध, स्तिमित, समृद्ध यावत् प्रतिरूप थी । उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में कोष्ठक नाम का चैत्य था । यह चैत्य अत्यन्त प्राचीन यावत् प्रतिरूप था । उस श्रावस्ती नगरी में प्रदेशी राजा का अन्तेवासी आज्ञापालक जितशत्रु नामक राजा था, जो महाहिमवन्त आदि पर्वतों के समान प्रख्यात था । तत्पश्चात् किसी एक समय प्रदेशी राजा ने महार्थ बहुमूल्य, महान् पुरुषों के योग्य, विपुल, राजाओं को देने योग्य प्राभृत सजाया चित्त सारथी को बुलाया और उससे इस प्रकार कहा - हे चित्त ! तुम श्रावस्ती नगरी जाओ और वहाँ जितशत्रु राजा को यह महार्थ यावत् भेंट दे आओ तथा जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं वहाँ की शासन व्यवस्था, राजा की दैनिकचर्या, राजनीति और राजव्यवहार को देखो, सुनो और अनुभव करो । तब वह चित्त सारथी प्रदेशी राजा की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित हुआ यावत् आज्ञा स्वीकार करके उस महार्थक यावत् उपहार को लिया और प्रदेशी राजा के पास से निकल कर सेयविया नगरी के बीचों-बीच से होता हुआ जहाँ अपना घर था, वहाँ आया । उस महार्थक उपहार को एक तरफ रख दिया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे इस प्रकार कहा
देवानुप्रियो ! शीघ्र ही छत्र सहित यावत् चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर तैयार कर लाओ यावत् इस आज्ञा को वापस लौटाओ । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने चित्त सारथी की आज्ञा सुनकर शीघ्र ही छत्रसहित यावत् युद्ध के लिये सजाये गये चातुर्घटिक अश्वरथ को जोत कर उपस्थित कर दिया और आज्ञा वापस लौटाई, कौटुम्बिक पुरुषों का यह कथन सुनकर चित्त सारथी हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् विकसितहृदय होते हुए उसने स्नान किया, बलिकर्म कौतुक मंगल- प्रायश्चित्त किये और फिर अच्छी तरह से शरीर पर कवच बांधा । धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई, गले में ग्रैवेयक और अपने श्रेष्ठ संकेतपट्टक को धारण किया एवं आयुध तथा प्रहरणों को ग्रहण कर, वह महार्थक यावत् उपहार, लेकर वहाँ आया जहाँ चातुर्घंट अश्वरथ खड़ा था । आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ हुआ ।
तत्पश्चात् सन्नद्ध यावत् आयुध एवं प्रहरणों से सुसज्जित बहुत से पुरुषों से परिवृत्त हो, कोरंट पुष्प की मालाओं से विभूषित छत्र को धारण कर, सुभटों और रथों के समूह के साथ अपने घर से रवाना हुआ और सेयविया नगरी के बीचोंबीच से निकल कर सुखपूर्वक रात्रिविश्राम, प्रातः कलेवा, पास-पास अन्तरावास करते, और जगह-जगह ठहरते केकयअर्ध जनपद के बीचोंबीच से होता हुआ जहाँ कुणाला जनपद था, जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, वहाँ पहुँचा ।