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राजप्रश्नी-५६
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तदनन्तर वह चित्त सारथी केशी कुमारश्रमण से धर्म श्रवण कर एवं उसे हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट होता हुआ यावत् अपने आसन से उठा । केशी कुमारश्रमण की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन - नमस्कार किया । इस प्रकार बोला- भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है । इस पर प्रतीति करता हूँ । मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचता है । मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है । भगवन् ! यह तथ्य है । यह अवितथ है । असंदिग्ध है । मुझे इच्छित है इच्छित, प्रतीच्छित है यह वैसा ही है। जैसा आप निरूपण करते हैं । ऐसा कहकर वन्दन - नमस्कार किया, पुनः बोला- देवानुप्रिय ! जिस तरह से आपके पास अनेक उग्रवंशीय, भोगवंशीय यावत् इभ्य एवं इभ्यपुत्र आदि हिरण्य त्याग कर, स्वर्ण को छोड़कर तथा धन, धान्य, बल, वाहन, कोश, कोठार, पुर-नगर, अन्तःपुर का त्याग कर और विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल आदि सारभूत द्रव्यों का ममत्व छोड़कर, उन सबको दीन-दरिद्रों में वितरित कर, पुत्रादि में बँटवारा कर, मुंडित होकर, प्रव्रजित हुए हैं, उस प्रकार का त्याग कर यावत् प्रव्रजित होने में तो मैं समर्थ नहीं हूँ । मैं आप देवानुप्रिय के पास पंच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म अंगीकार करना चाहता हूँ ।
चित्त सारथी की भावना को जानकर केशी कुमारश्रमण ने कहा- देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख हो, वैसा ही करो, किन्तु प्रतिबंध मत करो । तब चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण के पास पांच अणुव्रत यावत् श्रावक धर्म को अंगीकार किया । तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केश कुमारश्रमण की वन्दना की, नमस्कार किया । जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ था, उस ओर चलने को तत्पर हुआ । वहाँ जाकर चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ, फिर जिस ओर से आया था, वापस उसी ओर लौट गया ।
[ ५५ ] तब वह चित्त सारथी श्रमणोपासक हो गया । उसने जीव- अजीव पदार्थों का स्वरूप समझ लिया था, पुण्य-पाप के भेद को जान लिया था, वह आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध, मोक्ष के स्वरूप को जानने में कुशल हो गया था, दूसरे की सहायता का अनिच्छुक था । देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय था । निर्ग्रन्थ-प्रवचन में निःशंक था, आतमोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा रहित था । विचिकित्सा रहित था, लब्धार्थ, ग्रहीतार्थ, विनिश्चितार्थ, कर लिया था एवं अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्मानुराग से भरा । वह दूसरों को सम्बोधित करते हुए कहता था कि- आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही अर्थ है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ हैं । उसका हृदय स्फटिक की तरह निर्मल हो गया । निर्ग्रन्थ श्रमणों का भिक्षा के निमित्त से उसके घर का द्वार अर्गलारहित था । सभी के घरों, यहाँ तक कि अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश शंकारहित होने से प्रीतिजनक था । चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषधव्रत का समीचीन रूप से पालन करते हुए, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्राक, एषणीय, निर्दोष अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, पीठ, फलक, शैय्या, संस्तारक, आसन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, औषध, भैषज से प्रतिलाभित करते ग्रहण किये हुए तपः कर्म से आत्मा को भावित जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं उस श्रावस्ती नगरी के राज्यकार्यों यावत् राज्यव्यवहारों का बारम्बार अवलोकन करते हुए विचरने लगा ।
[ ५६ ] तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने किसी समय महाप्रयोजनसाधक यावत् प्राभृत