Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 265
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद २६४ जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर एक नहीं हैं । [७४] प्रदेशी राजा ने कहा- भंते ! क्या हाथी और कुंथु का जीव एक जैसा है ? हाँ, प्रदेशी । हाथी और कुंथु का जीव एक जैसा है, प्रदेशी - हे भदन्त ! हाथी से कुंथु अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प प्राणातिपात आदि आश्रव वाला है, और इसी प्रकार कुंथु का आहार, निहार, श्वासोच्छ्वास, ऋद्धि, द्युति आदि भी अल्प है और कुंथु से हाथी अधिक कर्मवाला, अधिक क्रियावाला यावत् अधिक द्युति संपन्न है ? हाँ प्रदेशी ! ऐसा ही है - हाथी से कुंथु अल्प कर्मवाला और कुंथु से हाथी महाकर्मवाला है । प्रदेशी - तो फिर भदन्त ! हाथी और कुंथु का जीव समान परिमाण वाला कैसे हो सकता है ? केशी कुमारश्रमण- हाथी और कुंथु के जीव को समान परिमाण वाला ऐसे समझा जा सकता है - है प्रदेशी ! जैसे कोई कूटाकार यावत् विशाल एक शाला हो और कोई एक पुरुष उस कूटाकारशाला में अग्नि और दीपक के साथ घुसकर उसके ठीक मध्यभाग में खड़ा हो जाए । तत्पश्चात् उस कूटाकारशाला के सभी द्वारों के किवाड़ों को इस प्रकार सटाकर अच्छी तरह बंद करदे कि उनमें किंचिन्मात्र भी सांध न रहे । फिर उस कूटाकारशाला के बीचोंबीच उस प्रदीप को जलाये तो जलाने पर वह दीपक उस कूटाकारशाला के अन्तर्व भाग को ही प्रकाशित, उद्योतित, तापित और प्रभासित करता है, किन्तु बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करता है । अब यदि वही पुरुष उस दीपक को एक विशाल पिटारे से ढंक दे तो वह दीपक कूटाकार - शाला की तरह उस पिटारे के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करेगा किन्तु पिटारे के बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करेगा । इसी तरह गोकलिंज, पच्छिकापिटक, गंडमाणिका, आढ़क, अर्धाढक, प्रस्थक, अर्धप्रस्थक, कुलव, अर्धकुलव, चतुर्भागिका, अष्टभागिका, षोडशिका, द्वात्रिंशतिका, चतुष्षष्टिका अथवा दीपचम्पक से ढंके तो वह दीपक उस ढक्कन के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करेगा, ढक्कन के बाहरी भाग को नहीं और न चतुष्षष्टिका के बाहरी भाग को, न कूटाकारशाला को, न कूटाकारशाला के बाहरी भाग को प्रकाशित करेगा । इसी प्रकार हे प्रदेशी ! पूर्वभवोपार्जित कर्म के निमित्त से जीव को क्षुद्र अथवा महत् जैसे भी शरीर को निष्पत्ति होती है, उसी के अनुसार आत्मप्रदशों को संकुचित और विस्तृत करने के स्वभाव के कारण वह उस शरीर को अपने असंख्यात आत्मप्रदेशों द्वारा सचित्त व्याप्त करता है । अतएव प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है । [ ७५ ] प्रदेशी राजा ने कहा- भदन्त ! आपने बताया सो ठीक, किन्तु मेरे पितामह की यही ज्ञानरूप संज्ञा थी यावत् समवसरण था कि जो जीव है वही शरीर है, जो शरीर है वही जीव है । जीव शरीर से भिन्न नहीं और शरीर जीव से भिन्न नहीं । तत्पश्चात् मेरे पिता की भी ऐसी ही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण था और उनके बाद मेरी भी यही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण है । तो फिर अनेक पुरुषों एवं कुलपरंपरा से चली आ रही अपनी कैसे छोड़ दूं ? केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी ! तुम उस अयोहारक की तरह पश्चात्ता करने वाले मत होओ । भदन्त ! वह अयोहारक कौन था और उसे क्यों पछताना पड़ा ? प्रदेशी ! कुछ अर्थ के अभिलाषी, अर्थ की गवेषणा करने वाले, अर्थ के लोभी, अर्थ की कांक्षा और अर्थ की लिप्सा वाले पुरुष अर्थ- गवेषणा करने के निमित्त विपुल परिमाण में बिक्री करने योग्य पदार्थों और साथ में खाने-पीने के लिये पुष्कल पाथेय लेकर निर्जन, हिंसक प्राणियों से व्याप्त

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