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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
भोजन नहीं बना सका । अब क्या करूँ । इस विचार से अत्यन्त निराश, दुःखी, चिन्तित, शोकातुर हो हथेली पर मुँह को टिकाकर आर्तध्यानपूर्वक नीचे जमीन में आँखें गड़ाकर चिंता में डूब गया । लकड़ियों को काटने के पश्चात् वे लोग वहाँ आये जहाँ अपना साथी था और उसको निराश दुःखी यावत् चिन्ताग्रस्त देखकर उससे पूछा-देवानुप्रिय ! तुम क्यों निराश, दुःखी यावत् चिन्ता में डूबे हुए हो ? तब उस पुरुष ने बताया कि देवानुप्रियो ! आप लोगों मुझसे कहा था, यावत् जंगल में चले गये । कुछ समय बाद मैंने विचार किया कि आप लोगों के लिए भोजन बना लूँ । ऐसा विचार कर जहाँ अंगीठी थी, वहाँ पहुँचा यावत् आर्तध्यान कर रहा हूँ । उन मनुष्यों में कोई एक छेक, दक्ष, प्राप्तार्थ यावत् उपदेश लब्ध पुरुष था । उस पुरुष ने अपने दूसरे साथी लोगों से इस प्रकार कहा
हे देवानुप्रियो ! आप जाओ और स्नान, बलिकर्म आदि करके शीघ्र आ जाओ । तब तक मैं आप लोगों के लिए भोजन तैयार करता हूँ । ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी, कुल्हाड़ी लेकर सर बनाया, सर से अरणि-काष्ठ को रगड़कर आग की चिनगारी प्रगट की । फिर उस धौंक कर सुलगाया और फिर उन लोगों के लिए भोजन बनाया । इतने में स्नान आदि करने गये पुरुष वापस स्नान करके, बलिकर्म करके यावत् प्रायश्चित्त करके उस भोजन बनाने वाले पुरुष के पास आ गये । तत्पश्चात् उस पुरुष ने सुखपूर्वक अपने-अपने आसनों पर बैठे उन लोगों के सामने उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाध रूप चार प्रकार का भोजन रखा। वे उस विपुल अशन आदि रूप चारों प्रकार के भोजन का स्वाद लेते हुए, खाते हुए यावत् विचरने लगे । भोजन के बाद आचमन-कुल्ला आदि करके स्वच्छ, शुद्ध होकर अपने पहले साथी से इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! तुम जड़-अनभिज्ञ, मूढ़, अपंडित, निर्विज्ञान, और अनुपदेशलब्ध हो, जो तुमने काठ के टुकड़ों में आग देखना चाही । इसी प्रकार की तुम्हारी भी प्रवृत्ति देखकर मैंने यह कहा-हे प्रदेशी ! तुम इस तुच्छ कठियारे से भी अधिक मूढ़ हो कि शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके जीव को देखना चाहते हो ।
[७२] प्रदेशी राजा ने कहा-भंते ! आप जैसे छेक, दक्ष, बुद्ध, कुशल, बुद्धिमान्, विनीत, विशिष्ट ज्ञानी, विवेक, संपन्न, उपदेशलब्ध, पुरुष का इस अति विशाल परिषद् के बीच मेरे लिये इस प्रकार के निष्ठुर शब्दों का प्रयोग करना, मेरी भर्त्सना करना, मुझे प्रताडित करना. धमकाना क्या उचित है ?
केशी कुमारश्रमण ने कहा-हे प्रदेशी ! जानते हो कि कितनी परिषदायें कही गई हैं ? प्रदेशी-जी हाँ जानता हूँ चार परिषदायें हैं-क्षत्रिय, गाथापति, ब्राह्मण और ऋषिपरिषदा । प्रदेशी ! तुम यह भी जानते हो कि इन चार परिषदाओं के अपराधियों के लिये क्या दंडनीति बताई गई है ? प्रदेशी-हाँ जानता हूँ । जो क्षत्रिय-परिषद् का अपराध करता है, उसके या तो हाथ, पैर या शिर काट दिया जाता है, अथवा उसे शूली पर चढ़ा देते हैं या एक ही प्रहार से या कुचलकर प्राणरहित कर दिया जाता है जो गाथापति-परिषद् का अपराध करता है, उसे घास से अथवा पेड़ के पत्तों से अथवा पलाल-पुआल से लपेट कर अग्नि में झोंक दिया जाता है | जो ब्राह्मणपरिषद् का अपराध करता है, उसे अनिष्ट, रोषपूर्ण, अप्रिय या अमणाम शब्दों से उपालंभ देकर अग्नितप्त लोहे से कुंडिका चिह्न अथवा कुत्ते के चिह्न से लांछित कर दिया जाता है अथवा निर्वासित कर दिया जाता है, जो ऋषिपरिषद् का अपमान करता है, उसे न अति अनिष्ट यावत् न अति अमनोज्ञ शब्दों द्वारा उपालंभ दिया जाता है । केशी कुमारश्रमणइस प्रकार की दंडनीति को जानते हुए भी हे प्रदेशी ! तुम मेरे प्रति विपरीत, परितापजनक,