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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
है । अतः प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक् हैं, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है ।
[ ६९ ] प्रदेशी राजा ने कहा- हे भदन्त ! यह तो प्रज्ञाजन्य उपमा है, । किन्तु मेरे द्वारा प्रस्तुत हेतु से तो यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर में भेद नहीं है । भदन्त ! कोई एक तरुण यावत् कार्यक्षम पुरुष एक विशाल वजनदार लोहे के भार की, सीसे के भार को या रांगे के भार को उठाने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण - हाँ समर्थ है । लेकिन भदन्त ! जब वही पुरुष वृद्ध हो जाए और वृद्धावस्था के कारण शरीर जर्जरित, शिथिल, झुर्रियों वाला एवं अशक्त हो, चलते समय सहारे के लिए हाथ में लकड़ी ले, दंतपंक्ति में से बहुत से दांत गिर चुके हों, खाँसी, श्वास आदि रोगों से पीड़ित होने के कारण कमजोर हो, भूख-प्यास से व्याकुल रहता हो, दुर्बल ओर क्लान्त हो तो उस वजनदार लोहे के भार को, रांगे के भार को अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ नहीं हो पाता है । हे भदन्त ! यदि वही पुरुष वृद्ध, जरा-जर्जरित शरीर यावत् परिक्लान्त होने पर भी उस विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ हो तो मैं यह विश्वास कर सकता था कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है, जीव और शरीर एक नहीं हैं । अतः मेरी यह धारणा सुसंगत है कि जीव और शरीर दोनों एक ही हैं, किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।
केश कुमारश्रमण ने कहा- जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्यनिपुण पुरुष नवीन कावड़ से, रस्सी से बने नवीन सीके से और नवीन टोकनी से एक बहुत बड़े, वजनदार लोहे के भार को यावत् वहन करने में समर्थ है ? प्रदेशी - हाँ समर्थ है । है प्रदेशी ! वही तरुण यावत् कार्यकुशल पुरुष क्या सड़ी-गली, पुरानी, कमजोर, घुन से खाई हुई- कावड़ से, जीर्ण-शीर्ण, दुर्बल, दीमक के खाये एवं ढीले-ढाले सीके से, और पुराने, कमजोर और दीमक लगे टोकरे से एक बड़े वजनदार लोहे के भार आदि को ले जाने में समर्थ है ? हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्यों समर्थ नहीं है ? क्योंकि भदन्त ! उस पुरुष के पास भारवहन करने के उपकरण जीर्णशीर्ण हैं । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह पुरुष जीर्ण यावत् क्लान्त शरीर आदि उपकरणोंवाली होने से एक भारी वजनदार लोहे के भार को यावत् वहन करने में समर्थ नहीं है । इसीलिए प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं ।
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[ ७०] हे भदन्त ! आपकी यह उपमा वास्तविक नहीं है, इससे जीव और शरीर की भिन्नता नहीं मानी जा सकती है । लेकिन जो प्रत्यक्ष कारण मैं बताता उससे यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर एक ही हैं । हे भदन्त ! किसी एक दिन मैं गणनायक आदि के साथ बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था । उसी समय मेरे नगररक्षक चोर पकड़ कर लाये । तब मैंने उस पुरुष को जीवित अवस्था में तोला । तोलकर फिर मैंने अंगभंग किये बिना ही उसको जीवन रहित कर दिया- फिर मैंने उसे तोला । उस पुरुष का जीवित रहते जो तोल था उतना ही मरने के बाद था । किसी भी प्रकार का अंतर दिखाई नहीं दी, न उसका भार बढ़ा और न कम हुआ, इसलिए हे भदन्त ! यदि उस पुरुष के जीवितावस्था के वजन से मृतावस्था के वजन में किसी प्रकार की न्यूनाधिकता हो जाती, तो मैं इस बात पर श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है । लेकिन भदन्त ! मैंने उस पुरुष की जीवित और मृत अवस्था में किये गये तोल में किसी प्रकार की भिन्नता, न्यूनाधिकता यावत् लघुता नहीं देखी । इस कारण मेरा यह मानना समीचीन है कि जो जीव