Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 264
________________ राजप्रश्नीय-७२ २६३ प्रतिकूल, विरुद्ध, सर्वथा विपरीत व्यवहार कर रहे हो ! तब प्रदेशी राजा ने कहा-भदन्त ! मेरा आप देवानुप्रिय से जब प्रथम ही वार्तालाप हुआ तभी मेरे मन में इस प्रकार का विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि जितना-जितना और जैसे-जैसे मैं इस पुरुष के विपरीत यावत् सर्वथा विपरीत व्यवहार करूंगा, उतना-उतना और वैसे-वैसे मैं अधिक-अधिक तत्त्व को जानूंगा, ज्ञान प्राप्त करूंगा, चारित्र को, चारित्रलाभ को, सम्यक्त्व को, सम्यक्त्व लाभको, जीव को, जीव के स्वरूप को समझ सकूँगा । इसी कारण आप देवानुप्रिय के प्रति मैंने विपरीत यावत् अत्यन्त विरुद्ध व्यवहार किया है । केशो कुमारश्रमण ने कहा-हे प्रदेशी ! जानते हो तुम कि व्यवहारकर्ता कितने प्रकार के बतलाये गए हैं ? हाँ, भदन्त ! जानता हूँ कि व्यवहारकों के चार प्रकार हैं-१. कोई किसी को दान देता है, किन्तु उसके साथ प्रीतिजनक वाणी नहीं बोलता । २. कोई संतोषप्रद बातें तो करता है, किन्तु देता नहीं है । ३. कोई देता भी है और लेने वाले के साथ सन्तोषप्रद वार्तालाप भी करता है और ४. कोई देता भी कुछ नहीं और न संतोषप्रद बात करता है । हे प्रदेशी ! जानते हो तुम कि इन चार प्रकार के व्यक्तियों में से कौन व्यवहारकुशल है और कौन व्यवहारशून्य है- ? प्रदेशी-हाँ जानता हूँ । इनमें से जो पुरुष देता है, किन्तु संभाषण नहीं करता, वह व्यवहारी है । जो पुरुष देता नहीं किन्तु सम्यग् आलाप से संतोष उत्पन्न करता है, वह व्यवहारी है । जो पुरुष देता भी है और शिष्ट वचन भी कहता है, वह व्यवहारी है, किन्तु जो न देता है और न मधुर वाणी बोलता है, वह अव्यवहारी है । उसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी व्यवहारी हो, अव्यवहारी नहीं हो । [७३] प्रदेशी राजा ने कहा-हे भदन्त ! आप अवसर को जानने में निपुण हैं, कार्यकुशल हैं यावत् आपने गुरु से शिक्षा प्राप्त की है तो भदन्त ! क्या आप मुझे हथेली में स्थित आंबले की तरह शरीर से बाहर जीव को निकालकर दिखाने में समर्थ हैं ? प्रदेशी ने यह कहा ही था कि उसी काल और उसी समय प्रदेशी राजा से अति दूर नहीं अर्थात् निकट ही हवा के चलने से तृण-घास, वृक्ष आदि वनस्पतियां हिलने-डुलने लगीं, कंपने लगीं, फरकने लगी, परस्पर टकराने लगीं, अनेक विभिन्न रूपों में परिणत होने लगीं । तब केशी कुमारश्रमण ने पूछा-हे प्रदेशी ! तुम इन तृणादि वनस्पतियों को हिलते-डुलते यावत् उन-उन अनेक रूपों में परिणत होते देख रहे हो ? प्रदेशी-हां, देख रहा हूँ ।। तो प्रदेशी ! क्या तुम यह भी जानते हो कि इन तृण-वनस्पतियों को कोई देव हिला रहा है अथवा असुर हिला रहा है अथवा कोई नाग, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गंधर्व हिला रहा है । प्रदेशी-हां, भदन्त ! जानता हूँ । इनको न कोई देव, यावत् न गंधर्व हिला रहा है । ये वायु से हिल-डुल रही हैं । हे प्रदेशी ! क्या तुम उस मूर्त, काम, राग, मोह, वेद, लेश्या और शरीर धारी वायु के रूप को देखते हो ? प्रदेशी-यह अर्थ समर्थ नहीं है । जब राजन् ! तुम इस रूपधारी यावत् सशरीर वायु के रूप को भी नहीं देख सकते तो प्रदेशी ! इन्द्रियातीत ऐसे अमूर्त जीव को हाथ में रखे आंवले की तरह कैसे देख सकते हो ? क्योंकि प्रदेशी ! छद्मस्थ मनुष्य इन दस वस्तुओं को उनके सर्व भावों-पर्यायों सहित जानते-देखते नहीं हैं । यथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरी जीव, परमाणु पुद्गल, शब्द, गंध, वायु, यह जिन होगा अथवा जिन नहीं होगा और यह समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं करेगा । किन्तु उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हन्त, जिन, केवली इन दस बातों को उनकी समस्त पर्यायों सहित जानते-देखते हैं, इसलिये प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि

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