Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 255
________________ २५४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद अपने घर से निकला । जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ आया । दोनों हाथ जोड़ यावत् अंजलि करके जय-विजय शब्दों से प्रदेशी राजा का अभिनन्दन किया और बोला-कंबोज देशवासियों ने देवानुप्रिय के लिए जो चार घोड़े उपहार-स्वरूप भेजे थे, उन्हें मैंने आप देवानुप्रिय के योग्य प्रशिक्षित कर दिया है । अतएव स्वामिन् ! पधारिए और उन घोड़ों की गति आदि चेष्टाओं का निरीक्षण कीजिये । तब प्रदेशी राजा ने कहा-हे चित्त ! तुम जाओ और उन्हीं चार घोड़ों को जोतकर अश्वरथ को यहाँ लाओ । चित्त सारथी प्रदेशी राजा के कथन को सुनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । यावत् विकसितहृदय होते हुए उसने अश्वस्थ उपस्थित किया और रथ ले आने की सूचना राजा को दी । तत्पश्चात् वह प्रदेशी राजा चित्त सारथी की बात सुनकर और हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट हुआ यावत् मूल्यवान् अल्प आभूषणों से शरीर को अलंकृत करके अपने भवन से निकला और आकर उस चार घंटों वाले अश्वस्थ पर आरूढ होकर सेयविया नगरी के बीचों-बीच से निकला । चित्त सारथी ने उस रथ को अनेक योजनों दूर तक बड़ी तेज चाल से दौड़ायातब गरमी, प्यास और रथ की चाल से लगती हवा से व्याकुल-परेशान-खिन्न होकर प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! मेरा शरीर थक गया है । रथ को वापस लौटा लो । तब चित्त सारथी ने रथ को लौटाया और मृगवन उद्यान था । वहाँ आकर प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! यह मृगवन उद्यान है, यहाँ रथ को रोक कर हम घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट को अच्छी तरह से दूर कर लें । इस पर प्रदेशी राजा ने कहा-हे चित्त ! ठीक, ऐसा ही करो । चित्त सारथी ने मृगवन उद्यान की ओर रथ को मोड़ा और फिर उस स्थान पर आया जो केशी कुमारश्रमण के निवासस्थान के पास था । वहाँ रथ को खड़ा किया, फिर घोड़ों को खोलकर प्रदेशी राजा से कहा है स्वामिन् ! हम यहाँ घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट को दूर कर लें । यह सुनकर प्रदेशी राजा रथ से नीचे उतरा, और चित्त सारथी के साथ घोड़ों की थकावट और अपनी व्याकुलता को मिटाते हुए उस ओर देखा जहाँ केशी कुमारश्रमण अतिविशाल परिषद् को धर्मोपदेश कर रहे थे । यह देखकर उसे मन-ही-मन यह विचार एवं संकल्प उत्पन्न हुआ जड़ ही जड़ की पर्युपासना करते हैं ! मुंड ही मुंड की, मूढ ही मूढों की, अपंडित ही अपंडित की, और अज्ञानी ही अज्ञानी की उपासना करते हैं ! परन्तु यह कौन पुरुष है जो जड़, मुंड, मूढ, अपंडित और अज्ञानी होते हुए भी श्री-ह्री से सम्पन्न है, शारीरिक कांति से सुशोभित है ? यह पुरुष किस प्रकार का आहार करता है ? किस रूप में खाये हुए भोजन को परिणमाता है ? यह क्या खाता है, क्या पीता है, लोगों को क्या देता है, समझना है ? यह पुरुष इतने विशाल मानव-समूह के बीच बैठकर जोर-जोर से बोल रहा है और चित्त सारथी से कहा-चित्त ! जड़ पुरुष ही जड़ की पर्युपासना करते हैं आदि । यह कौन पुरुष है जो ऊँची ध्वनि से बोल रहा है ? इसके कारण हम अपनी ही उद्यानभूमि में भी इच्छानुसार धूम नहीं सकते हैं । तब चित्त सारथी ने कहा-स्वामिन् ! ये पापित्य केशी कुमारश्रमण हैं, जो जातिसम्पन्न यावत् मतिज्ञान आदि चार ज्ञानों के धारक हैं । ये आधोऽवधिज्ञान से सम्पन्न एवं अन्नजीवी हैं । तब प्रदेशी राजा ने कहा-हे चित्त ! यह पुरुष आधोऽवधिज्ञान-सम्पन्न है और अन्नजीवी है ? चित्त-हाँ स्वामिन् ! हैं । प्रदेशी-हे चित्त ! तो क्या यह पुरुष अभिगमनीय है ? चित्त

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