Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 256
________________ राजप्रनीय ६३ २५५ हाँ स्वामिन् ! हैं । प्रदेशी - तो फिर, चित्त ! हम इस पुरुष के पास चलें । चित्त-हाँ स्वामिन् ! चलें । [[ ६३ ] तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा, जहाँ केशी कुमारश्रमण बिराजमान थे, वहाँ आया और केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर खड़े होकर बोला- हे भदन्त ! क्या आप आधोऽवधिज्ञानधारी हैं ? क्या आप अन्नजीवी हैं ? तब केशी कुमारश्रमण ने कहा- हे प्रदेशी ! जैसे कोई अंकवणिक् अथवा शंखवणिक्, दन्तवणिक, राजकर न देने के विचार से सीधा मार्ग नहीं पूछता, इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी विनयप्रतिपत्ति नहीं करने की भावना से प्रेरित होकर मुझ से योग्य रीति से नहीं पूछ रहे हो । हे प्रदेशी ! मुझे देखकर क्या तुम्हें यह विचार समुत्पन्न नहीं हुआ था, कि ये जड़ जड़ की पर्युपासना करते हैं, यावत् मैं अपनी ही भूमि में स्वेच्छापूर्वक घूम-फिर नहीं सकता हूँ ? प्रदेशी ! मेरा यह कथन सत्य है ? प्रदेशी - हाँ आपका कहना सत्य है । [६४] तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने कहा - भदन्त ! तुम्हें ऐसा कौनसा ज्ञान और दर्शन है कि जिसके द्वारा आपने मेरे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना और देखा ? तब केशी कुमारश्रमण ने कहा- हे प्रदेशी ! निश्चय ही हम निर्ग्रन्थ श्रमणों के शास्त्रों में ज्ञान के पाँच प्रकार बतलाये हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान 1 और केवलज्ञान । प्रदेशी - आभिनिबोधिक ज्ञान कितने प्रकार का है ? आभिनिबोधिकज्ञान चार प्रकार का है - अवग्रह, ईहा, अवाय धारणा प्रदेशी - अवग्रह कितने प्रकार का है ? अवग्रह ज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादन किया है इत्यादि धारणा पर्यन्त आभिनिबोधिक ज्ञान का विवेचन नंदीसूत्र के अनुसार जानना । प्रदेशी - श्रुतज्ञान कितने प्रकार का है ? श्रुतज्ञान दो प्रकार का है, यथा अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । दृष्टिवाद पर्यन्त श्रुतज्ञान के भेदों का समस्त वर्णन नन्दीसूत्र अनुसार । भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक के भेद से अवधिज्ञान दो प्रकार का है । इनका विवेचन भी नंदीसूत्र अनुसार । मनःपर्यायज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा ऋजुमति और विपुलमति । नंदीसूत्र के अनुरूप इनका भी वर्णन करना । इसी प्रकार केवलज्ञान का भी वर्णन यहाँ करना । इन पाँच ज्ञानों में से आभिनिबोधिक ज्ञान मुझे है, श्रुतज्ञान मुझे है, अवधिज्ञान भी मुझे है, मनःपर्याय ज्ञान भी मुझे प्राप्त है, किन्तु केवलज्ञान प्राप्त नहीं है । वह केवलज्ञान अरिहंत भगवन्तों को होता है । इन चतुर्विध छाद्मस्थिक ज्ञानों के द्वारा हे प्रदेशी ! मैंने तुम्हारे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मगोगत संकल्प को जाना और देखा है । [६५] प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया- भदन्त ! क्या मैं यहाँ बैठ जाऊं ? हे प्रदेशी ! यह उद्यानभूमि तुम्हारी अपनी है, अतएव बैठने के विषय में तुम स्वयं समझ लो । तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजां केशी कुमारश्रमण के समीप बैठ गया और पूछा—भदन्त ! क्या आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा है, प्रतिज्ञा है, दृष्टि है, रुचि है, हेतु है, उपदेश है, संकल्प है, तुला है, धारणा है, प्रमाणसंगत मंतव्य है और स्वीकृत सिद्धान्त है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है ? शरीर और जीव दोनों एक नहीं हैं ? केशी कुमारश्रमण ने कहा- हे प्रदेशी ! हम श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् समोसरण है कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, परन्तु जो जीव है वही शरीर है, ऐसी धारणा नहीं है । तब प्रदेशी राजा ने कहा- हे भद्रन्त ! यदि आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् सिद्धान्त है, तो मेरे पितामह, जो इसी जम्बूद्वीप की सेयविया नगरी में अधार्मिक यावत् राजकर लेकर भी अपने जनपद का भली-भाँति पालन, रक्षण नहीं करते थे, वे आपके कथनानुसार

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