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राजप्रश्नीय-६१
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इन चार कारणों से केवलि-भाषित धर्म को सुनने का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है | १. आराम में अथवा उद्यान में स्थित श्रमण या माहन के अभिमुख जो नहीं जाता है, स्तुति, नमस्कार, सत्कार एवं सम्मान नहीं करता है तथा कल्याण, मंगल, देव, एवं विशिष्ट ज्ञान स्वरूप मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है; जो अर्थ, हेतुओं, प्रश्नों को, कारणों को, व्याख्याओं को नहीं पूछता है, तो हे चित्त ! वह जीव केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है । २. उपाश्रय में स्थित श्रमण आदि का वन्दन, यावत् उनसे व्याकरण नहीं पूछता, तो हे चित्त ! वह जीव केवलि-भाषित धर्म को सुन नहीं पाता है । ३. गोचरी-गये हुए श्रमण अथवा माहन का सत्कार यावत् उनकी पर्युपासना नहीं करता तथा विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाध से उन्हें प्रतिलाभित नहीं करता, एवं शास्त्र के अर्थ यावत् व्याख्या को उनसे नहीं पूछता, तो चित्त ! केवली भगवान् द्वारा निरूपित धर्म को सुन नहीं पाता है । ४. कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिल जाने पर भी वहाँ अपने आप को छिपाने के लिये, वस्त्र से, छत्ते से स्वयं को आवृत कर लेता है, एवं उनसे अर्थ आदि नहीं पूछता है, तो हे चित्त ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवण करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सकता है ।
उक्त चार कारणों से हे चित्त ! जीव केवलिभाषित धर्म श्रवण करने का लाभ नहीं ले पाता है, किन्तु हे चित्त ! इन चार कारणों से जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है । १. आराम अथवा उद्यान में पधारे हुए श्रमण या माहन को जो वन्दन करता है, नमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है, अर्थों को यावत् पूछता है तो हे चित्त ! वह जीव केवलिप्ररूपित धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है । २. इसी प्रकार जो जीव उपाश्रय में रहे हए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार करता है यावत वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता है । ३. इसी प्रकार जो जीव गोचरी के लिये गए हुए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है यावत् उन्हें प्रतिलाभित करता है, वह जीव केवलिभाषित अर्थ को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है । ४. इसी प्रकार जो जीव जहाँ कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिलने पर हाथों, वस्त्रों, छत्ता आदि से स्वयं को छिपाता नहीं है, हे चित्त ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनने का लाभ प्राप्त कर सकता है । लेकिन हे चित्त ! तुम्हारा प्रदेशी राजा जब पधारे हुए श्रमण या माहन के सन्मुख ही नहीं आता है यावत् अपने को आच्छादित कर लेता है, तो मैं कैसे धर्म का उपदेश दे सकूँगा ?
चित्त सारथी ने निवेदन किया हे भदन्त ! किसी समय कंबोज देशवासियों ने चार घोड़े उपहार रूप भेंट किये थे । मैंने उनको प्रदेशी राजा के यहां भिजवा दिया था, इन घोड़ों के बहाने मैं शीघ्र ही प्रदेशी राजा को आपके पास लाऊँगा । तब आप प्रदेशी राजा को धर्मकथा कहते हुए लेशमात्र भी ग्लानि मत करना । हे भदन्त ! आप अग्लानभाव से प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश देना । आप स्वेच्छानुसार धर्म का कथन करना । तब केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! अवसर आने पर देखा जायेगा । तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया और फिर चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ । जिस दिशा से आया था उसी ओर लौट गया ।।
[६२] तत्पश्चात् कल रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने से जब कोमल उत्पल कमल विकसित हो चुके और धूप भी सुनहरी हो गई तब नियम एवं आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के चमकने के बाद चित्त सारथी