Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 253
________________ २५२ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद प्रार्थना करते हैं, स्पृहा करते हैं, अभिलाषा करते हैं, जिनका नाम, गोत्र सुनते ही हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हैं, ये वही केशी कुमारभ्रमण पूर्वानुपूर्वी से गमन करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए यहाँ आये हैं, तथा इसी सेयविया नगरी के बाहर मृगवन उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके यावत् बिराजते हैं । अतएव देवानुप्रिय ! हम चलें और चित्तसारथी के प्रिय इस अर्थ को उनसे निवेदन करें । हमारा यह निवेदन उन्हें बहुत ही प्रिय लगेगा ।' एक दूसरे ने इस विचार को स्वीकार किया । इसके बाद वे वहाँ आये जहाँ सेयविया नगरी, चित्त सारथी का घर तथा घर में जहाँ चित्त सारथी थी । वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् चित्त सारथी को बधाया और इस प्रकार निवेदन किया- देवानुप्रिय ! आपको जिनके दर्शन की इच्छा है यावत् जिनके नाम एवं गोत्र को सुनकर आप हर्षित होते हैं, ऐसे केशी कुमारभ्रमण पूर्वानुपूर्वी से विचरते हुए यहाँ पधार गये हैं यावत् विचर रहे हैं । तब वह चित्त सारथी उन उद्यानपालकों से इस संवाद को सुनकर एवं हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट हुआ । चित्त में आनंदित हुआ, मन में प्रीति हुई । परम सौमनस्य को प्राप्त हुआ । हर्षातिरेक से विकसितहृदय होता हुआ अपने आसन से उठा, पादपीठ से नीचे उतरा, पादुकाएं उतारी, एकशाटिक उत्तरासंग किया और मुकुलित हस्ताग्रहपूर्वक अंजलि करके जिस ओर केशी कुमारश्रमण विराजमान थे, उस ओर सात-आठ डग चला और फिर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा - अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो यावत् सिद्धगति को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य, मेरे धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो । उनकी मैं वन्दना करता हूँ । वहाँ बिराजमान वे भगवान् यहाँ विद्यमान मुझे देखें, इस प्रकार कहकर वंदन - नमस्कार किया । इसके पश्चात् उन उद्यानपालकों का विपुल वस्त्र, गंध, माला, अलंकारों से सत्कारसन्मान किया तथा जीविकायोग्य विपुल प्रीतिदान देकर उन्हें विदा किया । तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनको आज्ञा दी - शीघ्र ही तुम चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर उपस्थित करो यावत् हमें इसकी सूचना दो । तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् शीघ्र ही छत्र एवं ध्वजा-पताकाओं से शोभित रथ को उपस्थित कर आज्ञा वापस लौटाते हैं-कौटुम्बिक पुरुषों से रथ लाने की बात सुनकर एवं हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । चार घण्टों वाला रथ पर आरूढ होकर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर विशाल सुभटों के समुदाय सहित रवाना हुआ । वहाँ पहुंच कर पर्युपासना करने लगा । केशी कुमारश्रमण ने धर्मोपदेश दिया । इत्यादि पूर्ववत् जानना । [६०] तत्पश्चात् धर्म श्रवण कर और हृदय में धारण कर हर्षित, सन्तुष्ट, चित्त में आनंदित, अनुरागी, परम सौम्यभाव युक्त एवं हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर चित्त सारथी केश कुमारश्रमण से निवेदन किया - हे भदन्त ! हमारा प्रदेशी राजा अधार्मिक है, यावत् राजकर लेकर भी समीचीन रूप से अपने जनपद का पालन एवं रक्षण नहीं करता है । अतएव आप देवानुप्रिय ! यदि प्रदेशी राजा को धर्म का आख्यान करेंगे तो प्रदेशी राजा के लिये, साथ ही अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के लिये तथा बहुत से श्रमणों, महाणों एवं भिक्षुओं आदि के लिये बहुत - बहुत गुणकारी होगा । यदि वह धर्मोपदेश प्रदेशी के लिये हितकर हो जाता है तो उससे जनपद को भी बहुत लाभ होगा । [६१] केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी को समझाया - हे चित्त ! जीव निश्चय ही

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