Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 245
________________ २४४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और शीघ्रातिशीघ्र सूर्याभ विमान के श्रृंगाटकों में, त्रिकों में, चतुष्कों में, चत्वरों में, चतुर्मुखों में, राजमार्गों में, प्राकारों में, अट्टालिकाओं में, चरिकाओं में, द्वारों में, गोपुरों में, तोरणों, आरामों, उद्यानों, वनों, वनराजियों, काननों, वनखण्डों में जा-जा कर अनिका करो और अर्चनिका करके शीघ्र ही यह आज्ञा मुझे वापस लौटाओ, तदनन्तर उन आभियोगिक देवों ने सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुनकर यावत् स्वीकार करके सूर्याभ विमान के श्रृंगाटकों, यावत् वनखण्डों की अर्चनिका की और अर्चनिका करके सूर्याभदेव के पास आकर आज्ञा वापस लौटाई-तदनन्तर वह सूर्याभदेव जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी, वहाँ आया और पूर्व दिशावर्ती त्रिसोपानों से नन्दा पुष्करिणी में उतरा । हाथ पैरों को धोया और फिर नन्दा पुष्करिणी से बाहर निकल कर सुधर्मा सभा की ओर चलने के लिए उद्यत हुआ । इसके बाद सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा और दूसरे भी बहुत से सूर्याभ विमानवासी देव-देवियों से परिवेष्टित होकर सर्व वृद्धि यावत् तुमुल वाद्यध्वनि पूर्वक जहाँ सुधर्मा सभा थी वहाँ आया और पूर्व दिशा के द्वारा से सुधर्मा सभा में प्रविष्ट हुआ | सिंहासन के समीप आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया । [४५] तदन्तर उस सूर्याभदेव की पश्चिमोत्तर और उत्तरपूर्व दिशा में स्थापित चार हजार भद्रासनों पर चार हजार सामानिक देव बैठे । उसके बाद सूर्याभदेव की दिशा में चार भद्रासनों पर चार अग्रमहिषियाँ बैठीं । तत्पश्चात् सूर्याभ देव के दक्षिण-पूर्वदिक् कोण में अभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देव आठ हजार भद्रासनों पर बैठे । सूर्याभदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद् के दस हजार देव दस हजार भद्रासनों पर बैठे । तदनन्तर सूर्याभ देव के दक्षिणपश्चिम दिग् भाग में बाह्य परिषद् के बारह हजार देव बारह हजार भद्रासनों पर बैठे-तत्पश्चात् सूर्याभदेव की पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति सात भद्रासनों पर बैठे । - इसके बाद सूर्याभदेव की चारों दिशाओं में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पूर्वादि चारो दिशामें भद्रासनो पर बैठे | वे सभी आत्मरक्षक देव अंगरक्षा के लिये गाढबन्धन से बद्ध कवच को शरीर पर धारण करके, बाण एवं प्रत्यंचा से सन्नद्ध धनुष को हाथों में लेकर, गले में ग्रैवेयक नामक आभूषण-विशेष को पहनकर, अपने-अपने विमल और श्रेष्ठ चिह्नपट्टकों को धारण करके, आयुध और पहरणों से सुसज्जित हो, तीन स्थानों पर नमित और जुड़े हुये वज्रमय अग्र भाग वाले धनुष, दंड और बाणों को लेकर, नील-पीत-लाल प्रभा वाले बाण, धनुष चारु चमड़े के गोफन, दंड, तलवार, पाश-जाल को लेकर एकाग्रमन से रक्षा करने में तत्पर, स्वामीआज्ञा का पालन करने में सावधान, गुप्त-आदेश पालन करने में तत्पर, सेवकोचित गुणों से युक्त, अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये उद्यत, विनयपूर्वक अपनी आचार-मर्यादा के अनुसार किंकर होकर स्थित थे । [४६] सूर्याभदेव के समस्त चरित को सुनने के पश्चात् भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर से निवेदन किया-भदन्त ! सूर्याभदेव की भवस्थिति कितने काल की है ? गौतम ! चार पल्योपम की है । भगवन् ! सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों की स्थिति कितने काल की है । गौतम ! चार पल्योपम की है । यह सूर्याभ देव महाऋद्धि, महाद्युति, महान् बल, महायश, महासौख्य औ महाप्रभाव वाला है | अहो भदन्त ! वह सूर्याभदेव ऐसा महाकृद्धि, यावत् महाप्रभावशाली है । उन्होंने पुनः प्रश्न किया [४७] भगवन् ! सूर्याभदेव को इस प्रकार की वह दिव्य देवकृध्धि, दिव्य देवधुति और

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