Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 246
________________ राजप्रश्नीय-४७ २४५ दिव्य देवप्रभाव कैसे मिला है ? उसने कैसे प्राप्त किया ? किस तरह से अधिगत किया है, स्वामी बना है ? वह सूर्याभदेव पूर्वभव में कौन था ? उसका क्या नाम और गोत्र था ? वह किस ग्राम, नगर, निगम राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, संबाह, संनिवेश का निवासी था ? इसने ऐसा क्या दान में दिया, ऐसा अन्त-प्रान्तादि विरस आहार खाया, ऐसा क्या कार्य किया, कैसा आचरण किया और तथारूप श्रमण अथवा माहण से ऐसा कौनसा धार्मिक आर्य सुवचन सुना कि जिससे सूर्याभदेव ने यह दिव्य देवऋद्धि यावत् देवप्रभाव उपार्जित किया है, प्राप्त किया है और अधिगत किया है ? मुनिदीपरत्नसागर कृत् "सूर्याभदेव वीवरण" का हिन्दी अनुवाद पूर्ण [४८] श्रमण भगवान महावीर ने गौतमस्वामी से इस प्रकार कहा-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में केकयअर्ध नामक जनपद था । भवनादिक वैभव से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र-परचक्र के भय से रहित और समृद्ध था । सर्व ऋतओं के फल-फलों से समद्ध, रमणीय, नन्दनवन के समान मनोरम. प्रासादिक यावत अतीव अतीव मनोहर था । उस केकय-अर्ध जनपद में सेयविया नाम की नगरी थी । यह नगरी भी ऋद्धि-सम्पन्न स्तिमित एवं समृद्धिशाली यावत् प्रतिरूप थी । उस सेयविया नगरी के बाहर ईशान कोण में मृगवन नामक उद्यान था । यह उद्यान रमणीय, नन्दनवन के समान सर्व ऋतुओं के फल-फूलों से समृद्ध, शुभ, सुरभिगंध यावत् प्रतिरूप था । उस सेयविया नगरी के राजा का नाम प्रदेशी था । प्रदेशी राजा यावत् महान् था । किन्तु वह अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्माख्यायी, अधर्मानुग, अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्रजनक, अधर्मशीलसमुदाचारी तथा अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला था । वह सदैव 'मारो, छेदन करो, भेदन करो' इस प्रकार की आज्ञा का प्रवर्तक था । उसके हाथ सदा रक्त से भरे रहते थे । साक्षात् पाप का अवतार था । प्रकृति से प्रचण्ड, रौद्र और क्षुद्र था । साहसिक था । उत्कंचन, बदमाशों और ठगों को प्रोत्साहन देनेवाला, उकसानेवाला था । लांच, वंचक, धोखा देनेवाला, मायावी, कपटी, कूट-कपट करने में चतुर और अनेक प्रकार के झगड़ा-फिसाद रचकर दूसरों को दुःख देने वाला था । निश्शील था । निर्वत था, निर्गुण था, निर्मर्याद था, कभी भी उसके मन में प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि करने का विचार नहीं आता था। अनेक द्विपद, चतुष्पद, सरीसृप आदि की हत्या करने, उन्हें मारने, प्राणरहित करने, विनाश करने से साक्षात् अधर्म की ध्वजा जैसा था, गुरुजनों को देखकर भी उनका आदर करने के लिए आसन से खडा नहीं होता था, उनका विनय नहीं करता था और जनपद को प्रजाजनों से राजकर लेकर भी उनका सम्यक् प्रकार से पालन और रक्षण नहीं करता था । [४९] उस प्रदेशी राजा की सूर्यकान्ता रानी थी, जो सुकुमाल हाथ पैर आदि अंगोपांगवाली थी, इत्यादि । वह प्रदेशी राजा के प्रति अनुरक्त थी, और इष्ट प्रिय-शब्द, स्पर्श, यावत् अनेक प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगती हुई रहती थी । [५०] उस प्रदेशी राजा का ज्येष्ठ पुत्र और सूर्यकान्ता रानी का आत्मज सूर्यकान्तनामक राजकुमार था । वह सुकोमल हाथ पैर वाला, अतीव मनोहर था । वह सूर्यकान्त कुमार युवराज भी था । वह प्रदेशी राजा के राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोठार पुर और अंतःपुर की स्वयं देख भाल किया करता था ।

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