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राजप्रश्नीय-३६
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उन नागदंतों के ऊपर बहुत से रजमय सीके लटके हैं । उन रजतमय सीकों में बहुतसी वैडूर्य रत्नों से बनी हुई धूपघटिकायें रखी हैं । वे धूपघटिकायें काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क आदि की सुगंध से मन को मोहित कर रही हैं । उस सुधर्मा सभा के भीतर अत्यन्त रमणीय सम भूभाग है । वह भूमिभाग यावत् मणियों से उपशोभित है आदि मणियों के स्पर्श एवं चंदेवा पर्यन्त का सब वर्णन पूर्ववत् । उन अति सम रमणीय भूमिभाग के अति मध्यदेश में एक विशाल मणिपीठिका बनी हुई है । जो आयाम-विष्कम्भ की अपेक्षा सोलह योजन लंबीचौड़ी और आठ योजन मोटी तथा सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई यावत् प्रतिरूप है ।।
__ उन मणिपीठिका के ऊपर एक माणवक नामक चैत्यस्तम्भ है । वह ऊँचाई में साठ योजन ऊंचा, एक योजन जमीन के अंदर गहरा, एक योजन चौड़ा और अड़तालीस कोनों, अड़तालीस धारों और अड़तालीस आयामोंवाला है । शेष वर्णन माहेन्द्रध्वज जैसा जानना । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपरी भाग में बारह योजन और नीचे बारह योजन छोड़कर मध्य के शेष छत्तीस योजन प्रमाण भाग में अनेक स्वर्ण और रजतमय फलक लगे हुए हैं । उन स्वर्ण-रजतमय फलकों पर अनेक वज्रमय नागदंत हैं । उन वज्रमय नागदंतों पर बहुत से रजतमय सीके लटक रहे हैं । उन रजतमय सींकों में वज्रमय गोल गोल समुद्गक रखे हैं । उन गोल-गोल वज्ररत्नमय समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं । वे अस्थियाँ सूर्याभदेव एवं अन्य देव-देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं । उस माणवक चैत्य के ऊपर आठ आठ मंगल, ध्वजायें और छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं ।
[३७] माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व दिग्भाग में विशाल मणिपीठिका बनी हुई है । जो आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी और सर्वात्मना मणिमय निर्मल यावत् प्रतिरूप है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल सिंहासन रखा है । भद्रासन आदि आसनों रूप परिवार सहित उस सिंहासन का वर्णन करना । उस माणवक चैत्यस्तम्भ की पश्चिम दिशा में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह मणिपीठिका आठ योजन लम्बी चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्व मणिमय, स्वच्छ-निर्मल यावत् असाधारण सुन्दर है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक श्रेष्ठ रमणीय देवशय्या रखी हुई है । इसके प्रतिपाद अनेक प्रकार की मणियों से बने हुए हैं । स्वर्ण के पाद हैं । पादशीर्षक अनेक प्रकार की मणियों के हैं । गाते सोने की हैं । सांधे वज्ररत्नों से भरी हुई हैं । बाण विविध रत्नमयी हैं । तूली रजतमय है । ओसीसा लोहिताक्षरत्न का है । गंडोपधानिका सोने की है । उस शय्या पर शरीर प्रमाण गद्दा बिछा है । उसके शिरोभाग और चरणभाग दोनों ओर तकिये लगे हैं । वह दोनों ओर से ऊँची और मध्य में नत गम्भीर गहरी है । जैसे गंगा किनारे की बालू में पाँव रखने से पांव धंस जाता है, उसी प्रकार बैठते ही नीचे की ओर धंस जाते हैं । उस पर रजस्त्राण पड़ा रहता है-मसहरी लगी हुई है | कसीदा वाला क्षौमदुकूल बिछा है । उसका स्पर्श आजिनक रूई, बूर नामक वनस्पति, मक्खन और आक की रूई के समान सुकोमल है । लाल तूस से ढका रहता है । अत्यन्त रमणीय, मनमोहक यावत् असाधारण सुन्दर है ।
[३८] उस देव-शय्या के ईशान-कोण में आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी सर्वमणिमय यावत् प्रतिरूप एक बड़ी मणिपीठिका बनी है । उस मणिपीठिका के ऊपर साठ योजन ऊँचा, एक योजन चौड़ा, वज्ररत्नमय सुन्दर गोल आकार वाला यावत् प्रतिरूप एक क्षुल्लक छोटा माहेन्द्रध्वज लगा हुआ है । जो स्वस्तिक आदि आठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों से उपशोभित है । उस क्षुल्क माहेन्द्रध्वज की पश्चिम दिशा में सूर्याभदेव का