Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 241
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद आभूषणों को पहनने के पश्चात् ग्रंथिम, वेष्टिम, पूरिम और संघातिम, इन चार प्रकार की मालाओं से अपने को कल्पवृक्ष के समान अलंकृत किया । दद्दर मलय चंदन की सुगन्ध से सुगन्धित चूर्ण को शरीर पर छिड़का और फिर दिव्य पुष्पमालाओं को धारण किया । [४३] तत्पश्चात् केशालंकारों, पुष्प मालादि रूप माल्यालंकारों, हार आदि आभूषणालंकारों एवं देवदूष्यादि वस्त्रालंकारों धारण करके अलंकारसभा के पूर्वदिग्वर्ती से बाहर निकला । व्यवसाय सभा में आया एवं बारंबार व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से प्रविष्ट हुआ । जहाँ सिंहासन था वहाँ आकर यावत् सिंहासन पर आसीन हुआ । तत्पश्चात् सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने व्यवसायसभा में रखे पुस्तक - रत्न को उसके समक्ष रखा । सूर्याभदेव ने उस उपस्थित पुस्तक- रत्न को हाथ में लिया, पुस्तक -रत्न खोला, उसे बांचा । धर्मानुगत कार्य करने का निश्चय किया । वापस यथास्तान पुस्तकरन को रखकर सिंहासन से उठा एवं व्यवसाय सभा के पूर्व दिग्वर्ती द्वार से बाहर निकलकर जहाँ नन्दापुष्करिणी थी, वहाँ आया । पूर्व- दिग्वर्ती तीरण और त्रिसोपान पंक्ति में नंदा पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ । पैर धोये । आचमन कुल्ला कर पूर्ण रूप से स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर मत्त गजराज की मुखाकृति जैसी एक विशाल श्वेतधवल रजतमय से भरी हुई भृंगार एवं वहाँ के उत्पल यावत् शतपत्र - सहस्रपत्र कमलों को लिया । नंदा पुष्करिणी से बाहर निकला सिद्धायतन की ओर चलने के लिये उद्यत हुआ । [४४] तब उस सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा कितने ही अन्य बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवी भी हाथों में उत्पल यावत् शतपथ- सहस्रपत्र कमलों को लेकर सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले । तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव के बहुत-से अभियोगिक देव और देवियाँ हाथों में कलश यावत् धूप- दानों को लेकर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले । तत्पश्चात् सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् और दूसरे बहुत से देवों और देवियों से परिवेष्टित होकर अपनी समस्त ऋद्धि, वैभव यावत् वाद्यों की तुमुल ध्वनिपूर्वक जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ आया । पूर्वद्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछंदक और जिनप्रतिमाएँ थीं वहाँ आया । उसने जिनप्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करके लोममंयी प्रमार्जनी हाथ में ली और प्रमार्जनी को लेकर जिनप्रतिमाओं को प्रमाजि४त किया । सुरभि गन्धोदक से उन जिनप्रतिमाओं का प्रक्षालन किया । सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया । काषायिक सुरभि गन्ध से सुवासित वस्त्र से उनको पोंछा । उन जिन प्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य-युगल पहनाया । पुष्प, माला, गन्ध, चूर्ण, वर्ण, वस्त्र और आभूषण चढ़ाये । फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोल मालायें पहनाई । पंचरंगे पुष्पपुंजों को हाथ में लेकर उनकी वर्षा की और मांड मांडकर उस स्थान को सुशोभित किया । फिर उन जिनप्रतिमाओं के सन्मुख शुभ्र, सलौने, रजतमय अक्षत तन्दुलों से आठ-आठ मंगलों का आलेखन किया, यथा-स्वतिक यावत् दर्पण । २४० तदनन्तर उन जिनप्रतिमाओ के सन्मुख श्रेष्ठ काले अगर, कुन्दरु, तुरुष्क और धूप की महकती सुगन्ध से व्याप्त और धूपवत्ती के समान सुरभिगन्ध को फैलाने वाले चन्द्रकांत मणि, वज्ररत्न और वैडूर्य मणि की दंडी तथा स्वर्ण मणिरत्नों से रचित चित्र-विचित्र रचनाओं से युक्त वैडूर्यमय धूपदान को लेकर धूप-क्षेप किया तथा विशुद्ध अपूर्व अर्थसम्पन्न अपुनरुक्त महिमाशाली एक सौ आठ छन्दों में स्तुति की । स्तुति करके सात-आठ पग पीछे हटा, और फिर पीछे

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