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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
में वज्ररत्नमय गोल समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियां व्यवस्थित रूप से रखी हुई हैं । वे
आप देवानुप्रिय तथा दूसरे भी बहुत से वैमानिक देवों एवं देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं । अतएव आप देवानुप्रिय के लिए उनकी पर्युपासना करने रूप कार्य करने योग्य है और यही कार्य पीछे करने योग्य है । आप देवानुप्रिय के लिए यह पहले भी श्रेयरूप है और बाद में भी यही श्रेय रूप है । यही कार्य आप देवानुप्रिय के लिए पहले और पीछे भी हितकर, सुखप्रद, क्षेमकर, कल्याणकर एवं परम्परा से सुख का साधन रूप होगा ।
[४२] तत्पश्चात् वह सूर्याभदेव उन सामानिकपरिषदोपगत देवों से इस अर्थ को
और हृदय में अवधारित कर हर्षित. सन्तष्ट यावत हृदय होता हआ शय्या से उठा और उठकर उपपात सभा के पूर्वदिग्वर्ती द्वार से निकला. निकलकर ह्रद पर आया. ह्रद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशावर्ती तोरण से होकर उसमें प्रविष्ट हुआ । पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपान पंक्ति से नीचे उतरा, जल में अवगाहन और जलमज्जन किया, जलक्रीड़ा की, जलाभिषेक किया, आचमन द्वारा अत्यन्त स्वच्छ और शुचिभूत-शुद्ध होकर ह्रद से बाहर निकला, जहां अभिषेकसभा थी वहाँ आया, अभिषेकसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशावर्ती द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, सिंहासन के समीप आया और आकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा । तदनन्तर सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया र कहादेवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही सूर्याभदेव का अभिषेक करने हेतु महान् अर्थ वाले महर्घ एवं महापुरुषों के योग्य विपुल इन्द्राभिषेक की सामग्री उपस्थित करो ।
__तत्पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने सामानिक देवों की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित यावत् विकसित हृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके विनय पूर्वक आज्ञा-वचनों को स्वीकार किया । वे उत्तरपूर्व दिग्भाग में गये और ईशानकोण में जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया । संख्यात योजन का दण्ड बनाया यावत् पुनः भी वैक्रिय समुद्घात करके एक हजार आठ एक हजार आठ स्वर्णकलशों की, रुप्यकलशों की, मणिमय कलशों की, स्वर्ण-रजतमय कलशों की, स्वर्ण-मणिमय कलशों की, रजत-मणिमय कलशों की, रजत-मणिमय कलशों की, स्वर्ण-रूप्य-मणिमय कलशों की, बौमेय कलशों की एवं इसी प्रकार भंगारों, दर्पणों, थालों, पात्रियों, सुप्रतिष्ठानों वातकरकों, रत्नकरंडकों, पुष्पचंगेरिकाओं यावत् मयूरपिच्छचंगेरिकाओं, पुष्पपटलकों यावत् मयूरपिच्छपटलकों, सिंहासनों, छत्रों, चामरों, तेलसमुद्गकों यावत् अंजनसमुद्गकों, ध्वजाओं, धूपकडुच्छकों की विकुर्वणा की ।
विकुर्वणा करके उन स्वाभाविक और विक्रियाजन्य कलशों यावत् धुपकडुच्छकों को अपने-अपने हाथों में लिया और लेकर सूर्याभविमान से बाहर निकले । अपनी उत्कृष्ट चपल दिव्य गति से यावत् तिर्यक लोक में असंख्यात योजनप्रमाण क्षेत्र को उलांघते हुए जहां क्षीरोदधि समद्र आये | कलशो में क्षीरसमद्र के जल को भरा तथा वहां के उत्पल यावत शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों को लिया । कमलों आदि को लेकर जहाँ पुष्करोदक समुद्र था वहाँ आये, आकर पुष्करोदक को कलशों में भरा तथा वहाँ के उत्पल शतपत्र सहस्रपत्र आदि कमलों को लिया । तत्पश्चात् जहाँ मनुष्यक्षेत्र था और उसमें भी जहाँ भरत-ऐवत क्षेत्र थे, जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ थे वहाँ आये और आकर उन-उन तीर्थों के जल को भरा, वहाँ की मिट्टी ग्रहण की । जहाँ गंगा, सिन्धु, रक्ता रक्तवती महानदियं थीं, वहाँ आये। आकर नदियों के जल और उनके दोनों तटों की मिट्टी को लिया । नदियों के जल और मिट्टी को लेकर चुल्लहिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत पर आये । कलशों में जल भरा तथा सर्व