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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
रत्नों से इसमें रूपक संघात, चित्रों आदि के समूह बने हैं । अंक रत्नमय इसके पक्ष और पक्षबाहा हैं । ज्योतिरस रत्नमय इसके वंश, वला और वंशकवेल्लुक हैं । रजतमय इनकी पट्टियां हैं । स्वर्णमयी अवघाटनियां और वज्ररत्नमयी उपरिप्रोंछनी हैं । सर्वरत्नमय आच्छादन हैं । वह पद्मववेदिका सभी दिशा-विदिशाओं में चारों ओर से एक-एक हेमजाल से जाल से, किंकणी घंटिका, मोती, मणि, कनक रत्न और पद्म की लंबी-लंबी मालाओं से परिवेष्टित है । ये सभी मालायें सोने के लंबूसकों आदि से अलकृंत हैं । उस पद्मवरवेदिका के यथायोग्य उन-उन स्थानों पर अश्वसंघात यावत् वृषभयुगल सुशोभित हो रहे हैं । ये सभी सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् प्रतिरूप, प्रासादिक हैं यावत् इसी प्रकार इनकी वीथियाँ, पंक्तियाँ, मिथुन एवं लायें हैं ।
भदन्त ! किस कारण कहा जाता है कि यह पद्मववेदिका है, पद्मववेदिका है ? भगवान् ने उत्तर दिया - हे गौतम ! पद्मवर वेदिका के आस-पास की भूमि में, वेदिका के फलकों में, वेदिकायुगल के अन्तरालों में, स्तम्भों, स्तम्भों की बाजुओं, स्तम्भों के शिखरों, स्तम्भयुगल के अन्तरालों, कीलियों, कीलियों के ऊपरीभागों, कीलियों से जुड़े हुए फलकों, कीलियों के अन्तरालों, पक्षों, पक्षों के प्रान्त भागों और उनके अन्तरालों आदि-आदि में वर्षाकाल के बरसते मेघों से बचाव करने के लिए छत्राकार - जैसे अनेक प्रकार के बड़े-बड़े विकसित, सर्व रत्नमय स्वच्छ, निर्मल अतीव सुन्दर, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक पुडरीक महापुंडरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र कमल शोभित हो रहे हैं । इसीलिये हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! इस पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका कहते हैं ।
हे भदन्त ! वह पद्मवरवेदिका शाश्वत है अथवा अशाश्वत गौतम ! शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है । भगवन् ! किसी कारण आप ऐसा कहते हैं ? हे गौतम ! द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा वह शाश्वत है परन्तु वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत है । इसी कारण हे गौतम ! यह कहा है । हे भदन्त ! काल की अपेक्षा वह पद्मवरवेदिका कितने काल पर्यन्त रहेगी ? हे गौतम ? वह पद्मवरवेदिका पहले कभी नहीं थी, ऐसा नहीं है, अभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और आगे नहीं रहेगी ऐसा भी नहीं है, किन्तु पहले भी थी, अब भी है और आगे भी रहेगी । इस प्रकार वह पद्मवरवेदिका ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है ।
वह पद्मवरवेदिका चारों ओर एक वनखंड से परिवेष्टित हैं । उस वनखंड का चक्रवालविष्कम्भ कुछ कम दो योजन प्रमाण है तथा उपकारिकालयन की परिधि जितनी उसकी परिधि है । वहाँ देव - देवियाँ विचरण करती हैं, यहाँ तक वनखण्ड का वर्णन पूर्ववत् कर लेना । उस उपकारिकालयन की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक बने हैं । यान विमान के सोपानों के समान इन त्रिसोपान - प्रतिरूपकों का वर्णन भी तोरणों, ध्वजाओं, छत्रातिछत्रों आदि पर्यन्त यहाँ करना । उन उपकारिकालयन के ऊपर अतिसम, रमणीय भूमिभाग है । यानविमानवत् मणियों के स्पर्शपर्यन्त इस भूमिभाग का वर्णन यहाँ करना । [३५] इस अतिसम रमणीय भूमिभाग के अतिमध्यदेश में एक विशाल मूल प्रासादावतंसक है । वह प्रासादावतंसक पांच सौ योजन ऊँचा और अढाई सौ योजन चौड़ा है तथा अपनी फैल रही प्रभा से हँसता हुआ प्रतीत होता है, उस प्रासाद के भीतर के भूमिभाग, उल्लोक, भद्रासनों, आठ मंगल, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों का यहां कथन करना । वह प्रधान प्रासादावतंसक सभी चारों दिशाओं में ऊँचाई में अपने से आधे ऊँचे अन्य चार