Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 228
________________ राजप्रश्नीय-३० २२७ हुई जड़ों से युक्त है । इन वनखंडों के वृक्ष जमीन के अन्दर विस्तृत गहरे फैले हुए मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रशाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज से युक्त हैं । छतरी के समान इनका रमणीय गोल आकार है । इनके स्कन्ध ऊपर की ओर उठी हुई अनेक शाखा-प्रशाखाओं से शोभित हैं और इतने विशाल एवं वृत्ताकार हैं कि अनेक पुरुष मिलकर भी अपने फैलाये हुए हाथों से उन्हें घेर नहीं पाते । पत्ते इतने घने हैं कि बीच में जरा भी अंत दिखलाई नहीं देता है । पत्र-पल्लव सदैव नवीन जैसे दिखते हैं । कोपलें अत्यन्त कोमल हैं और सदैव सर्व ऋतुओं के पुष्पों से व्याप्त हैं तथा नमित, विशेष नमित, पुष्पित, पल्लवित, गुल्मित, गुच्छित, विनमित प्रणमित होकर मंजरी रूप शिरोभूषणों से अलंकृत रहते हैं | तोता, मयूर, मैना, कोयल, नंदीमुख, तीतर, बटेर, चक्रवाल, कलहंस, बतक, सारस आदि अनेक पक्षि-युगलों के मधुर स्वरों से गूंजते रहते हैं । अनेक प्रकार के गुच्छों और गुल्मों से निर्मित मंडप आदि से सुशोभित हैं । नासिका और मन को तृप्ति देने वाली सुगंध से महकते रहते हैं । इस प्रकार ये सभी वृक्ष सुरम्य, प्रासादिक दर्शनीय, अभिरूप-मनोहर एवं प्रतिरूप हैं । [३१] उन वनखंडों के मध्य में अति सम रमणीय भूमिभाग हैं । वे-मैदान आलिंग पुष्कर आदि के सदृश समतल यावत् नाना प्रकार के रंग-बिरंगे पंचरंगे मणियों और तृणों से उपशोभित हैं । इन मणियों के गंध और स्पर्श यथाक्रम से पूर्व में किये गये मणियों के गंध और स्पर्श के वर्णन समान जानना । हे भदन्त ! पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा से आए वायु के स्पर्श से मंद-मंद हिलने-डुलने, कंपने, डगमगाने, फरकने, टकराने क्षुभित और उदीरित होने पर उन तृणों और मणियों की कैसी शब्द-ध्वनि होती है ? हे गौतम ! जिस तरह शिबिका अथवा स्यन्दमानिका अथवा रथ, जो छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका और उत्तम तोरणों से सुशोभित, वाद्यसमूहवत् शब्द-निनाद करने वाले धुंघरुओं एवं स्वर्णमयी मालाओं से परिवेष्टित हो, हिमालय में उत्पन्न अति निगड़-सारभूत उत्तम तिनिश काष्ठ से निर्मित एवं सुव्यवस्थित रीति से लगाये गये आरों से युक्त पहियों और धुरा से सुसज्जित हो, सुदृढ़ उत्तम लोहे के पट्टों से सुरभिक्षित पट्टियों वाले, शुभलक्षणों और गुणों से युक्त कुलीन अश्व जिसमें जुते हों जो रथ-संचालन-विद्या में अति कुशल, दक्ष सारथी द्वारा संचालित हो, एक सौ-एक सौ वाण वाले, बत्तीस तूणीरों से परिमंडित हो, कवच से आच्छादित अग्र-शिखरभाग वाला हो, धनुष बाण, प्रहरण, कवच आदि युद्धोपकरणों से भरा हो, और युद्ध के लिये तत्पर-सन्नद्ध योधाओं के लिए सजाया गया हो, ऐसा रथ बारम्बार मणियों और रत्नों से बनाये गये फर्श वाले राजप्रांगण, अंतःपुर अथवा रमणीय प्रदेश में आवागमन करे तो सभी दिशाविदिशा में चारों ओर उत्तम, मनोज्ञ, मनोहर, कान और मन को आनन्द-कारक मधुर शब्दध्वनि फैलती है । हे भदन्त ! क्या इन स्थादिकों की ध्वनि जैसी ही उन तृणों और मणियों की ध्वनि है ? गौतम ! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है । भदन्त ! क्या उन मणियों और तृणों की ध्वनि ऐसी है जैसी कि मध्यरात्रि अथवा रात्रि के अन्तिम प्रहर में वादनकुशल नर या नारी द्वारा अंक-गोद में लेकर चंदन के सार भाग से रचित कोण के स्पर्श से उत्तर-मन्द मूर्च्छना वाली वैतालिक वीणा को मन्द-मन्द ताड़ित, कंपित, प्रकंपित, चालित, घर्षित क्षुभित और उदीरित किये जाने पर सभी दिशाओं एवं विदिशाओं में चारों ओर उदार, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोहर, कर्णप्रिय एवं मनमोहक ध्वनि गूंजती है ? गौतम ! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है ।

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