Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 215
________________ २१४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् सिंहासन बनाया । उस सिंहासन के चक्कला सोने के, सिंहाकृति वाले हत्थे रत्नों के, पाये सोने के, पादशीर्षक अनेक प्रकार की मणियों के और बीच के गाते जाम्बूनद के थे । उसकी संधियां वज्ररत्नों से भरी हुई थी और मध्य भाग की बुनाई का वेंत बाण मणिमय था । उस सिंहासन पर ईहामृग, बृषभ तुरग, नर, मगर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरु सरभ, चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र बने हुए थे । सिंहासन के सामने स्थापित पाद-पीठ सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान् मणियों और रत्नों का बना हुआ था। उस पादपीठ पर पैर रखने के लिए बिछा हुआ मसूरक नवतृण कुशाग्र और केसर तंतुओं जैसे अत्यन्त सुकोमल सुन्दर आस्तारक से ढका हुआ था । उसका स्पर्श आजिनक रुई, बूर, मक्खन और आक की रुई जैसा मृदु-कोमल था । वह सुन्दर सुरचित रजस्त्राण से आच्छादित था । उसपर कसीदा काढ़े क्षौम दुकूल का चद्दर बिछा हुआ था और अत्यन्त रमणीय लाल वस्त्र से आच्छादित था । जिससे वह सिंहासन अत्यन्त रमणीय, मन को प्रसन्न करनेवाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप-अतीव मनोहर दिखता था । उस सिंहासन के ऊपरी भाग में शंख, कुंदपुष्प, जलकण, मथे हुए क्षीरोदधि के फेनपुंज के सदृश प्रभावाले रत्नों से बने हुए, स्वच्छ, निर्मल, स्निग्ध प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप एक विजयदूष्य को बांधा । उस सिंहासन के ऊपरी भाग में बंधे हुए विजयदूष्य के बीचों-बीच वज्ररत्नमय एक अंकुश लगाया । उस वज्र रत्नमयी अंकुश में कुंभ परिणाम जैसे एक बड़े मुक्तादाम को लटकाया और वह कुंभपरिमाण वाला मुक्तादाम भी चारों दिशाओं में उसके परिमाण से आधे और दूसरे चार मुक्तादामों से परिवेष्टित था । वे सभी दाम सोने के लंबूसकों, विविध प्रकार की मणियों, रत्नों अथवा विविध प्रकार के मणिरत्नों से बने हुए हारों, अर्ध हारों के समुदायों से शोभित हो रहे थे और पास-पास टंगे होने से लटकने से जब पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर की मन्द-मन्द हवा के झोकों से हिलते-डुलते तो एक दूसरे से टकराने पर विशिष्ट, मनोज्ञ, मनहर, कर्ण एवं मन को शांति प्रदान करने वाली रुनझुन रुनझुन शब्द-ध्वनि से समीपवर्ती समस्त प्रदेश को व्याप्त करते हुए अपनी श्री-शोभा से अतीव-अतीव शोभित होते थे । [१६] तदनन्तर आभियोगिक देव ने उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तर पूर्व दिग्भाग में सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देवों के बैठने के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की । पूर्व दिशा में सूर्याभ देव की परिवार सहित चार अग्र महिषियों के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की । दक्षिणपूर्व दिशा में सूर्याभदेव की आभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देवों के लिये आठ हजार भद्रासनों की रचना की । दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद् के देवों के लिए दस हजार भद्रासनों की, दक्षिण-पश्चिम दिग्भाग में बाह्य परिषदा के बारह हजार देवों के लिए बारह हजार भद्रासनों की और पश्चिम दिशा में सप्त अनीकाधिपतियों के लिए सात भद्रासनों की रचना की । तत्पश्चात् सूर्याभदेव के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के लिए क्रमशः पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, और उत्तर दिशा चार-चार हजार, इस प्रकार सोलह हजार भद्रासनों को स्थापित किया । उस दिव्य यान-विमान का रूप-सौन्दर्य क्या तत्काल उदित हेमन्त ऋतु के बाल सूर्य, रात्रि में प्रज्वलित खदिर के अंगारों, पूरी तरह से कुसुमित जपापुष्पवन, पलाशवन अथवा पारिजातवन जैसा लाल था ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे आयुष्यमन् श्रमणो ! वह यानविमान तो इन से भी अधिक इष्टतर यावत् रक्तवर्णवाला था । उसी प्रकार उसका गंध और

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