Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 219
________________ २१८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद कण्ठ एवं वक्षस्थल वाले और नृत्य करने के लिए तत्पर थे । तदनन्तर सूर्याभदेव ने अनेक प्रकार की मणियों आदि से निर्मित आभूषणों से विभूषित यावत् पीवर-पुष्ट एवं लम्बी बांयीं भुजा को फैलाया । उस भुजा से समान शरीराकृति, समान रंग, समान वय, समान लावण्य-रूप-यौवन गुणोंवाली, एक जैसे आभूषणों, दोनों ओर लटकते पल्ले वाले उत्तरीय वस्त्रों और नाट्योपकरणों से सुसज्जित, ललाट पर तिलक, मस्तक पर आमेल गले में ग्रैवेयक और कंचुकी धारण किये हुए अनेक प्रकार के मणि-रत्नों के आभूषणों से विराजित अंग-प्रत्यंगों-वाला चन्द्रमुखी, चन्द्रार्ध समान ललाट वाली चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य दिखाई देने वाली, उल्का के समान चमकती, श्रृंगार गृह के तुल्य चारु-सुन्दर वेष से शोभित, हंसने-बोलने, आदि में पटु, नृत्य करने के लिए तत्पर एक सौ आठ देवकुमारियाँ निकलीं । तत्पश्चात् एक सौ आठ देवकुमारों और देवकुमारियों की विकुर्वणा करने के पश्चात् सूर्याभदेव ने एक सौ आठ शंखों की और एक सौ आठ शंखवादकों की विकुर्वणा की । इसी प्रकार से एक सौ आठ श्रृंगों और उनके वादकों की, शंखिकाओं और उनके वादकों की, खरमुखियों और उनके वादकों की, पेयों और उनके वादकों की, पिरिपिरिकाओं और उनके वादकों की विकुर्वणा की । इस तरह कुल मिलाकर उनपचास प्रकार के वाद्यों और उनके बजाने वालों की विकुर्वणा की । तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने उन देवकुमारों तथा देवकुमारियों को बुलाया । सूर्याभदेव द्वारा बुलाये जाने पर वे देवकुमार और देवकुमारियाँ हर्षित होकर यावत् सूर्याभदेव के पास आये और दोनों हाथ जोड़कर यावत् अभिनन्दन कर सूर्याभदेव से विनयपूर्वक बोले-हे देवानुप्रिय ! हमें जो करना है, उसकी आज्ञा दीजिये । तब सूर्याभदेव ने उन देवकुमारों और देवकुमारियों से कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम सभी श्रमण भगवान् महावीर के पास जाओ, तीन बार श्रमण भगवान् महावीर की प्रदक्षिणा करो। वन्दन-नमस्कार करो । गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाववाली, बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि करके दिखलाओ । शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा को वापस मुझे लौटाओ । तदनन्तर वे सभी देवकुमार और देवकुमारियां सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित हुए यावत् दोनों हाथ जोड़कर यावत् आज्ञा को स्वीकार किया। श्रमण भगवान् के पास आकर यावत् नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ बिराजमान थे, वहाँ आये । [२४] इसके बाद सभी देवकुमार और देवकुमारियाँ पंक्तिबद्ध होकर एक साथ मिले । सब एक साथ नीचे नमे और एक साथ ही अपना मस्तक ऊपर कर सीधे खड़े हुए । इसी क्रम से पुनः कर सीधे खड़े होकर नीचे नमे और फिर सीधे खड़े हुए । खड़े होकर एक साथ अलग-अलग फैल गये और फिर यथायोग्य नृत्य-गान आदि के उपकरणों-वाद्यों को लेकर एक साथ ही बजाने लगे, एक साथ ही गाने लगे और एक साथ नृत्य करने लगे । उनका संगीत इस प्रकार का था कि उर से उद्गत होने पर आदि में मन्द मन्द, मूर्छा में आने पर तार और कंठ स्थान में विशेष तार स्वरवाला था । इस तरह त्रिस्थान-समुद्गत वह संगीत त्रिसमय रेचक से रचित होने पर त्रिविध रूप था । संगीत की मधुर प्रतिध्वनि-गुंजारव में समस्त प्रेक्षागृह मण्डप गंजने लगता था । गेय राग-रागनी के अनरूप था । त्रिस्थान त्रिकरण से शद्ध था । गूंजती हुई बांसुरी और वीणा के स्वरों से एक रूप मिला हुआ था । एक-दूसरे की बजती हथेली के स्वर का अनुसरण करता था । मुरज और कंशिका आदि वाद्यों की झंकारों तथा

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