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विपाकश्रुत-१/९/३३
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सम्बन्धिजनों और परिजनों का भी विपुल अशनादिक तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलङ्कारादि से सत्कार व सन्मान करने के बाद उन्हें विदा करते हैं । राजकुमार पुष्पनंदी श्रेष्ठपुत्री देवदत्ता के साथ उत्तम प्रासाद में विविध प्रकार के वाद्यों और जिनमें मृदङ्ग बज रहे हैं, ऐसे ३२ प्रकार के नाटकों द्वारा उपगीयमान - प्रशंसित होते सानंद मनुष्य संबंधी शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंधरूप भोग भोगते हुए समय बिताने लगे ।
कुछ समय बाद महाराजा वैश्रमण कालधर्म को प्राप्त हो गये । उनकी मृत्यु पर शोकग्रस्त पुष्पनन्दी ने बड़े समारोह के साथ उनका निस्सरण किया यावत् मृतक कर्म करके राज सिंहासन पर आरूढ़ हुए यावत् युवराज से राजा बन गए । पुष्पनन्दी राजा अपनी माता श्रीदेवी का परम भक्त था । प्रतिदिन माता श्रीदेवी जहां भी हों वहाँ आकर श्रीदेवी के चरणों में प्रणाम करके शतपाक और सहस्रपाक तैलों की मालिश करवाता था । अस्थि को सुख देने वाले, मांस को सुखकारी, त्वचा की सुखप्रद और दोनों को सुखकारी ऐसी चार प्रकार की अंगमर्दन क्रिया से सुखशान्ति पहुँचाता था । सुगन्धित गन्धवर्तक से उद्वर्तन करवाता पश्चात् उष्ण, शीत और सुगन्धित जल से स्नान करवाता, फिर विपुल अशनादि चार प्रकार का भोजन कराता । इस प्रकार श्रीदेवी के नहा लेने यावत् अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके भोजन कर लेने के अनन्तर अपने स्थान पर आ चुकने पर और वहाँ पर कुल्ला तथा मुखगत लेप को दूर कर परम शुद्ध हो सुखासन पर बैठ जाने के बाद ही पुष्यनन्दी स्नान करता, भोजन करता था । तथा फिर मनुष्य सम्बन्धी उदार भोगो का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता था ।
तदनन्तर किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ताओं में उलझी हुई देवदत्ता के हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'इस प्रकार निश्चय ही पुष्पनंदी राजा अपनी माता श्रीदेवी का 'यह पूज्या है' इस बुद्धि से परम भक्त बना हुआ है । इस अवक्षेप के कारण मैं पुष्पनन्दी राजा के साथ पर्याप्त रूप से मनुष्य सम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग नहीं कर पाती
। इसलिये अब मुझे यही करना योग्य है कि अग्नि, शस्त्र विष या मन्त्र के प्रयोग से श्रीदेवी को जीवन से व्यपरोपित करके महाराज पुष्यनन्दी के साथ उदार - प्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषय-भोगो का यथेष्ट उपभोग करूं ।' ऐसा विचार कर वह श्रीदेवी को मारने के लिये अन्तर, छिद्र और विवर की प्रतीक्षा करती हुई विहरण करने लगी ।
तदनन्तर किसी समय स्नान की हुई श्रीदेवी एकान्त में अपनी शय्या पर सुखपूर्वक सो रही थी । इधर लब्धावकाश देवदत्ता देवी भी जहाँ श्रीदेवी थी वहाँ पर आती है । स्नान व एकान्त में शय्या पर सुखपूर्वक सोई हुई श्रीदेवी को देखकर दिशा का अवलोकन करती है । उसके बाद जहाँ भक्तगृह था वहाँ पर जाकर लोहे के डंडे को ग्रहण करती है । ग्रहण कर लोहे के उस डंडे को तपाती है, तपाकर अग्नि के समान देदीप्यमान या खिले हुए किंशुक के फूल के समान लाल हुए उस लोहे के दण्ड को संडासी से पकड़कर जहाँ श्रीदेवी थी वहाँ आकर श्रीदेवी के गुदास्थान में घुसेड़ देती है । लोहदंड के घुसेड़ने से बड़े जोर के शब्दों से चिल्लाती हुई श्रीदेवी कालधर्म से संयुक्त हो गई- मृत्यु को प्राप्त हो गई ।
तदनन्तर उस श्रीदेवी की दासियाँ भयानक चीत्कार शब्दों को सुनकर अवधारण कर जहां श्रीदेवी थी वहाँ आती हैं और वहाँ से देवदत्ता देवी को निकलती हुई देखती हैं । जिधर श्रीदेवी सोई हुई थी वहाँ आकर श्रीदेवी को प्राणरहित, चेष्टारहित देखती हैं । देखकर - 'हा !