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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
की शुभ रेखाएं थी, उनका वक्षस्थल, स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त समतल, उपचित, विस्तीर्ण, पृथुल था, उस पर श्रीवत्स - स्वस्तिक का चिह्न था, देह की मांसलता या परिपुष्टता के कारण रीढ़ की हड्डी नहीं दिखाई देती थी, उनका शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान्, निर्मल, सुन्दर, निरुपहत था, उसमें उत्तम पुरुष के १००८ लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे, उनकी देह के पार्श्व भाग नीचे की ओर क्रमशः संकड़े, देह के प्रमाण के अनुरूप, सुन्दर, सुनिष्पन्न, अत्यन्त समुचित परिमाण में मांसलता लिए हुए मनोहर थे, उनके वक्ष और उदर पर सीधे, समान, संहित, उत्कृष्ट कोटि के, सूक्ष्म, काले, चिकने उपादेय, लावण्यमय, रमणीय बालों की पंक्ति थी, उनके कुक्षिप्रदेश मत्स्य और पक्षी के समान सुजातसुन्दर रूप में अवस्थित तथा पीन थे, उनका उदर मत्स्य जैसा था, उनके आन्त्र समूह निर्मल था, उनकी नाभि कमल की तरह विकट, गंगा के भंवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार, सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल के समान खिली हुई थी तथा उनकी देह का मध्यभाग त्रिकाष्ठिका, मूसलव दर्पण के हत्थे के मध्य भाग के समान, तलवार को मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतला था, प्रमुदित, स्वस्थ, उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान उनकी कमर गोल घेराव लिए थी ।
उत्तम घोड़े के सुनिष्पन्न गुप्तांग की तरह उनका गुह्य भाग था, उत्तम जाति के अश्व की तरह उनका शरीर 'मलमूत्र' विसर्जन की अपेक्षा से निर्लेप था, श्रेष्ठ हाथी के तुल्य पराक्रम और गम्भीरता लिए उनकी चाल थी, हाथी की सूंड की तरह उनकी जंघाएं सुगठित थीं, उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ़ थे, उनकी पिण्डलियाँ हरिणी की पिण्डलियों, कुरुविन्द घास तथा कते हुए सूत की गेंढी की तरह क्रमशः उतार सहित गोल थीं, उनके टखने सुन्दर, सुगठित और निगूढ थे, उनके चरण, सुप्रतिष्ठित तथा कछुए की तरह उठे हुए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे, उनके पैरों की अंगुलियाँ क्रमशः आनुपातिक रूप में छोटी-बड़ी एवं सुसंहत थीं, पैरों के नख उन्नत, पतले, तांबे की तरह लाल, स्निग्ध थे, उनकी पगथलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार तथा कोमल थीं, उनके शरीर में उत्तम पुरुषों के १००८ लक्षण प्रकट थे, उनके चरण पर्वत, नगर, मगर, सागर तथा चक्र रूप उत्तम चिह्नों और स्वस्तिक आदि मंगल - चिह्नों से अंकित थे, उनका रूप विशिष्ट था, उनका तेज निर्धूम अग्नि की ज्वाला, विस्तीर्ण विद्युत् तथा अभिनव सूर्य की किरणों के समान था, वे प्राणातिपात आदि आस्रव-रहित, ममता-रहित थे, अकिंचन थे, भव-प्रवाह को उच्छिन्न कर चुके थे, निरुपलेप थे, प्रेम, राग, द्वेष और मोह का नाश कर चुके थे, निर्ग्रन्थ-प्रवचन के उपदेष्टा, धर्मशासन के नायक, प्रतिष्ठापक तथा श्रमम- पति थे, श्रमण वृन्द से घिरे हुए थे, जिनेश्वरों के चौतीस बुद्ध - अतिशयों से तथा पैंतीस सत्य वचनातिशयों से युक्त थे, आकाशगत चक्र, छत्र, आकाशगत चंवर, आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक से बने पाद- पीठ सहित सिंहासन, धर्मव्यज-ये उनके आगे चल रहे थे, चौदह हजार साधु तथा छत्तीस हजार साध्वियों से संपरिवृत थे, आगे से आगे चलते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव होते हुए सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पा के बाहरी उपनगर में पहुँचे, जहाँ से उन्हें चम्पा में पूर्णभद्र चैत्य में पधारना था । [११] प्रवृत्ति निवेदन को जब यह बात मालूम हुई, वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ । उसने अपने मन में आनन्द तथा प्रीति का अनुभव किया । सौम्य मनोभाव व हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठा । उसने स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये, कौतुक, तिलक,