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औपपातिक ४१
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का परित्याग कर मुंडित होकर, अनगार या श्रमण के रूप में प्रव्रजित हुए । कइयों ने पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहि धर्म स्वीकार किया । शेष परिषद् ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया- भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात, सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित, निर्ग्रन्थ-प्रवचन, अनुत्तर है । आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम का विश्लेषण किया । उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक समझाया । विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण का निरूपण किया । विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप कर्म न करने की विवेचना की । दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके । इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ? यों कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी ओर लौट गई ।
[४२] तत्पश्चात् भंभसार का पुत्र राजा कूणिक श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हुआ, मन में आनन्दित हुआ । अपने स्थान से उठा । श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की । वन्दन - नमस्कार किया । बोला- भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात, सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित, निर्ग्रन्थ प्रवचन, अनुत्तर है । इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ?" यों कह कर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया ।
[४३] सुभद्रा आदि रानियाँ श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हुई, मन में आनन्दित हुई । अपने स्थान से उठीं । उठकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा की । वैसा कर भगवान् को वन्दन - नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार कर वे बोली - " निर्ग्रन्थ-प्रवचन सुआख्यात है... सर्वश्रेष्ठ है... इत्यादि पूर्ववत् ।" यों कह कर वे जिस दिशा से आई थीं, उसी दिशा की ओर चली गईं ।
मुनिदीपरत्नसागर कृत् " समवसरण" विषयक हिन्दी अनुवाद पूर्ण
[४४] उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊँचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्र - संस्थान संस्थित थे- जो वज्र - ऋषभ - नाराच संहनन थे, कसौटी पर खचित स्वर्ण रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी थे, तप्त तपस्वी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल साधना में सशक्त घोरगुण धारक, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, उत्क्षिप्तशरीर थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, भगवान् महावीर सेन अधिक दूर न अधिक समीप पर संस्थित हो, घुटने ऊँचे किये, मस्तक नीचे किये, ध्यान की मुद्रा में, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे। तब उन भगवान् गौतम के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा पैदा हुई, संशय - जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ । पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उभरा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुआ । उठकर जहाँ भगवान् महावीर थे, आए । तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा की, वन्दनानमस्कार किया । भगवान् के न अधिक समीप न अधिक दूर सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना करते हुए भगवन् ! वह जीव, जो असंयत है, जो अवरित है, जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पाप कर्मों को प्रतिहत नहीं किया, जो सक्रिय है, जो असंवृत है, जो एकान्तदंड युक्त है, जो एकान्तबाल है, जो एकान्तसुप्त है, क्या वह पाप कर्म से लिप्त होता है-हाँ, गौतम ! होता है ।
भगवन् ! वह जीव, जो असंयत है, जो अविरत है, जिससे प्रत्याख्यान द्वारा पाप