Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 207
________________ २०६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद _ नमो नमो निम्मलदसणस्स १३| राजप्रश्रीय उपांगसूत्र-२ हिन्दी अनुवाद [अरिहंतो को नमस्कार हो । सिद्धो को नमस्कार हो । आचार्यो को नमस्कार हो । उपाध्याय को नमस्कार हो । लोक में रहे हुए सर्व साधुओ को नमस्कार हो ।] [१] काल और उस समय में आमलकल्पा नाम की नगरी थी । वह भवनादि वैभवविलास से सम्पन्न थी यावत्-मनोहर रूप वाली थी और असाधारण सौन्दर्य वाली थी। [२] उस आमलकप्पा नगरी के बाहर ईशान दिशा में आम्रशालवन नामक चैत्य था। वह चैत्य बहुत प्राचीन था । [३] उस चैत्यवर्ती श्रेष्ठ अशोकवृक्ष और पृथ्वीशिलापट्टक का वर्णन उववाईसूत्र अनुसार जानना । [४] उस आमलकप्पा नगरी में सेय नामक राज्य करता था । उस की धारिणी नाम की पटरानी थी । स्वामी-श्रमण भगवान् महावीर पधारे । परिषद् निकली । राजा भी यावत् पर्युपासना करने लगा। [५] उस काल उस समय में में सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा और दूसरे बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देवदेवियों सहित अव्याहत निरन्तर नाट्य एवं निपुण पुरुषों द्वारा वादित वीणा हस्तताल, कांस्यताल और अन्यान्य वादित्रों तथा घनमृदंग के साथ दिव्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था । उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञानोपयोग द्वारा इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को देखा । उस समय उसने जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथा प्रतिरूप अवग्रह ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देखा । वह हर्षित और अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ, उसका चित्त आनंदित हो उठा । प्रीति उत्पन्न हुई, अतीव सौमनस्य को प्राप्त हुआ, हर्षातिरेक से उसका हृदय फूल गया, नेत्र और मुख विकसित श्रेष्ठ कमल जैसे हो गये । अपार हर्ष के कारण पहने हुए श्रेष्ठ कटक, त्रुटित, केयूर, मुकुट और कुण्डल चंचल हो उठे, वक्षस्थल हार से चमचमाने लगा, पैरों तक लटकते प्रालंब-झूमके विशेष चंचल हो उठे और उत्सुकता, तीव्र अभिलाषा से प्रेरित हो वह देवश्रेष्ठ सूर्याभ देव शीघ्र ही सिंहासन से उठा । पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा । पादुकायें उतारी । एकाशाटिक उत्तरासंग किया । तीर्थंकर के अभिमुख सात-आठ डग चला, बायां घुटना ऊँचा रखा और दाहिने घुटने को नीचे भूमि पर टेक कर तीन बार मस्तक को पृथ्वी पर नमाया । तत्पश्चात् कटक त्रुटित से स्तंभित दोनों भुजाओं को मिलाया । हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उसने इस प्रकार कहा अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो, धर्म की आदि करनेवाले, तीर्थ स्थापना करने वाले, स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रुओं विनाश में पराक्रमी, पुरुषों में सिंह के

Loading...

Page Navigation
1 ... 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274