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औपपातिक-६४
परस्पर अवगाढ हैं । वे सब लोकान्त का संस्पर्श किये हुए हैं ।
[ ६५ ] ( एक-एक ) सिद्ध समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा अनन्त सिद्धों का सम्पूर्ण रूप में संस्पर्श किये हुए हैं । और उनसे भी असंख्यातगुण सिद्ध ऐसे हैं जो देशों और प्रदेशों सेएक-दूसरे में अवगाढ़ हैं ।
[ ६६ ] सिद्ध शरीर रहित, जीवधन तथा दर्शनोपयोग एवं ज्ञानोपयोग में उपयुक्त हैं । यों साकार तथा अनाकार - चेतना सिद्धों का लक्षण है ।
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[६७] वे केवल ज्ञानोपयोग द्वारा सभी पदार्थों के गुणों एवं पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन द्वारा सर्वतः समस्त भावों को देखते हैं ।
[ ६८ ] सिद्धों को जो अव्याबाध, शाश्वत सुख प्राप्त है, वह न मनुष्यों को प्राप्त है। और न समग्र देवताओं को ही ।
[ ६९ ] तीन काल गुणित अनन्त देव-सुख, यदि अनन्त वार वर्गवर्गित किया जाए तो भी वह मोक्ष सुख के समान नहीं हो सकता ।
[ ७०] एक सिद्ध के सुख को तीनों कालों से गुणित करने पर जो सुख - राशि निष्पन्न हो, उसे यदि अनन्त वर्ग से विभाजित किया जाए, जो सुख - राशि भागफल के रूप में प्राप्त हो, वह भी इतनी अधिक होती है कि सम्पूर्ण आकाश में समाहित नहीं हो सकती ।
[ ७१] जैसे कोई असभ्य वनवासी पुरुष नगर के अनेकविध गुणों को जानता हुआ भी वन में वैसी कोई उपमा नहीं पाता हुआ उस के गुणों का वर्णन नहीं कर सकता । [७२] उसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है । उसकी कोई उपमा नहीं है । फिर भी विशेष रूप से उपमा द्वारा उसे समझाया जा रहा है, सुनें ।
[७३] जैसे कोई पुरुष अपने द्वारा चाहे गये सभी गुणों-विशेषताओं से युक्त भोजन कर, भूख-प्यास से मुक्त होकर अपरिमित तृप्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार - [७४] सर्वकालतृप्त, अनुपम शान्तियुक्त सिद्ध शाश्वत तथा अव्याबाध परम सुख में निमग्न रहते हैं ।
[ ७५ ] वे सिद्ध हैं । बुद्ध हैं, पारगत हैं, परंपरागत हैं, उन्मुक्त कर्मकवच हैं, अजर हैं, अमर हैं तथा असंग हैं ।
[ ७६ ] सिद्ध सब दुःखों को पार कर चुके हैं जन्म, बुढ़ापा तथा मृत्यु के बन्धन से मुक्त हैं । निर्बाध, शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं ।
[७७] अनुपम सुख-सागर में लीन, निर्बाध, अनुपम मुक्तावस्था प्राप्त किये हुए सिद्ध समग्र अनागत काल में सदा प्राप्तसुख, सुखयुक्त अवस्थित रहते हैं ।
१२ औपपातिक - उपांगसूत्र - १ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण