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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
भगवान् ने आगे कहा-जीव चार स्थानों से-नैरयिक का आयुष्यबन्ध करते हैं, फलतः वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं । वे स्थान इस प्रकार हैं-१. महाआरम्भ, २. महापरिग्रह, ३. पंचेन्द्रिय-वध तथा ४. मांस-भक्षण | इन कारणों से जीव तिर्यंच-योनि में उत्पन्न होते हैं१. मायापूर्ण निकृति, २. अलीक वचन, ३. उत्कंचनता, ४. वंचनता । इन कारणों से जीव मनुष्य-योनि में उत्पन्न होते हैं-१. प्रकृति-भद्रता, २. प्रकृति-विनीतता, ३. सानुक्रोशता, ४. अमत्सरता । इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं-१. सरागसंयम, २. संयमासंयम, ३. अकाम-निर्जरा, ४. बाल-तप-तत्पश्चात् भगवान् ने बतलाया
[३५] जो नरक में जाते हैं, वे वहाँ नैरयिकों जैसी वेदना पाते हैं । तिर्यंच योनि में गये हुए वहाँ होनेवाले शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं ।
[३६] मनुष्यजीवन अनित्य है । उसमें व्याधि, वृद्धावस्था, मृत्यु और वेदना आदि प्रचुर कष्ट है । देवलोक में देव दैवीऋद्धि और दैवीसख प्राप्त करते हैं ।
[३७] भगवानने नरक तिर्यंचयोनि, मानुषभाव, देवलोक तथा सिद्ध, सिद्धावस्था एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया ।
[३८] जैसे-जीव बंधते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं । कई अप्रतिबद्ध व्यक्ति दुःखों का अन्त करते हैं ।
[३९] पीड़ा वेदना व आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख-सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्म-बल को ध्वस्त करते हैं ।
[४०] रागपूर्वक किये गये कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं यह सब (भगवान् ने) आख्यात किया । आगे भगवान् ने बतलाया-धर्म दो प्रकार का है-अगार-धर्म और अनगार-धर्म । अनगार-धर्म में साधक सर्वतः सर्वात्मना, सर्वात्मभाव से सावध कार्यों का परित्याग करता हुआ मुंडित होकर, गृहवास से अनगार दशा में प्रव्रजित होता है । वह संपूर्णतः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि-भोजन से विरत होता है । भगवान् ने कहा-आयुष्यमान् ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा या आचरण में उपस्थित रहते हुए निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी साध्वी आज्ञा के आराधक होते हैं ।
भगवान् ने अगारधर्म १२ प्रकार का बतलाया-५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत तथा ४ शिक्षाव्रत । ५ अणुव्रत इस प्रकार हैं-१. स्थूल प्राणातिपात से निवृत्त होना, २. स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना, ३. स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना, ४. स्वदारसंतोष मैथुन की सीमा, ५. परिग्रह की इच्छा का परिमाण । ३. गुणव्रत इस प्रकार हैं-१. अनर्थदंड-विरमण, २. दिग्व्रत, ३. उपभोग-परिभोग-परिमाण । शिक्षाव्रत इसप्रकार हैं-१. सामायिक, २. देशावकाशिक, ३. पोषधोपवास, ४. अतिथि-संविभाग । तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखणा भगवान् ने कहा-आयुष्यमान् ! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है । इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक-श्रावक या श्रमणोपासिका श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं ।
[४१] तब वह विशाल मनुष्य-परिषद् श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर, हृदय में धारण कर, हृष्ट-तुष्ट हुई, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उठी । उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा, वंदन-नमस्कार किया, उनमें से कई गृहस्थ-जीवन