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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे । नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला को अपना दाहिना हाथ ऊंचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, अत्यन्त कोमल वाणी से उनका कुशल पूछता हुआ, घरों की हजारों पंक्तियों को लांघता हुआ राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीच से निकला । जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आया । भगवान् के न अधिक दूर न अधिक निकट रुका । तीर्थंकरों के छत्र आदि अतिशयों देखा । देखकर अपनी सवारी के प्रमुख उत्तम हाथी को ठहराया, हाथी से नीचे उतरा, तलवार, छत्र, मुकुट, चंवर-इन राज चिह्नों को अलग किया, जूते उतारे । भगवान् महावीर जहाँ थे, वहाँ आया । आकर, सचित्त का व्युत्सर्जन, अचित्त का अव्युत्सर्जन, अखण्ड वस्त्र का उत्तरासंग, दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, मन को एकाग्र करना - इन पाँच नियमों के अनुपालनपूर्वक राजा कूणिक भगवान् के सम्मुख गया । भगवान् को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया । कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से पर्युपासना की । कायिक पर्युपासना के रूप में हाथों-पैरों को संकुचित किये हुए शुश्रूषा करते हुए, नमन करते हुए भगवान् की ओर मुँह किये, विनय से हाथ जोड़े हुए स्थित रहा । वाचिक पर्युपासना के रूप में - जो-जो भगवान् बोलते थे, उसके लिए "यह ऐसा ही है भन्ते ! यही तथ्य है भगवन् ! यही सत्य है प्रभो ! यही सन्देह-रहित है स्वामी ! यही इच्छित है भन्ते ! यही प्रतीच्छित है, प्रभो ! यही इच्छित - प्रतीच्छित है, भन्ते ! जैसा आप कह रहे हैं ।" इस प्रकार अनुकूल वचन बोलता, मानसिक पर्युपासना के रूप में अपने में अत्यन्त संवेग उत्पन्न करता हुआ तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त रहा ।
[३३] तब सुभद्रा आदि रानियों ने अन्तःपुर में स्नान किया, नित्य कार्य किये । कौतुक की दृष्टि से आँखों में काजल आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत, आदि से मंगल - विधान किया । वे सभी अलंकारों से विभूषित हुईं । फिर बहु सी देश-विदेश की दासियों, जिनमें से अनेक कुबड़ी थीं; अनेक किरात देश की थी, अनेक बौनी थीं, अनेक ऐसी थीं, जिनकी कमर झुकी थीं, अनेक बर्बर देश की, कुश देश की, यूनान देश की, पह्लव देश की, इसिन देश की, चारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, सिंहल देश की, द्रविड़ देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश की, बहल देश की, मुरुंड देश की, शबर देश की, पारस देश की-यों विभिन्न देशों की थीं जो स्वदेशी वेशभूषा से सज्जित थीं, जो चिन्तित और अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, अपने अपने देश के रीति-रिवाज के अनुरूप जिन्होंने वस्त्र आदि धारण कर रखे थे, ऐसी दासियों के समूह से घिरी हुई, वर्षधरों, कंचुकियों तथा अन्तःपुर के प्रामाणिक रक्षाधिकारियों से घिरी हुई बाहर निकलीं ।
अन्तःपुर से निकल कर सुभद्रा आदि रानियाँ, जहाँ उनके लिए अलग-अलग रथ खड़े थे, वहाँ आई । अपने अलग-अलग अवस्थित यात्राभिमुख, जुते हुए रथों पर सवार हुईं । अपने परिजन वर्ग आदि से घिरी हुई चम्पानगरी के बीच से निकलीं । जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आईं । श्रमण भगवान् महावीर के न अधिक दूर, न अधिक निकट ठहरीं । तीर्थंकरों के छत्र आदि अतिशयों को देखा । देखकर अपने अपने रथों को रुकवाया । रथों से नीचे उतरीं । अपनी बहुत सी कुब्जा आदि पूर्वोक्त दासियों से घिरी हुई बाहर निकलीं । जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आई | भगवान् के निकट जाने हेतु पाँच प्रकार के अभिगमन जैसे सचित्त पदार्थों का व्युत्सर्जन, करना, अचित्त पदार्थों का अव्युत्सर्जन, देह को विनय से नम्र