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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
चन्द्र के सदृश देखने में बड़ा प्रिय लगता था । वह, जहाँ बाहरी सभा भवन था, प्रधान हाथी था, वहाँ आया । वहाँ आकर अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल, उच्च गजपति पर वह नरपति आरूढ हुआ ।
तब भंसार के पुत्र राजा कूणिक के प्रधान हाथी पर सवार हो जाने पर सबसे पहले स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य तथा दर्पण - ये आठ मंगल क्रमशः चले । उसके बाद जल से परिपूर्ण कलश, झारियाँ, दिव्य छत्र, पताका, चंवर तथा दर्शन - रचित - राजा के दृष्टिपथ में अवस्थित, दर्शनीय, हवा से फहराती, उच्छित, मानो आकाश को छूती हुई सी विजय-वैजयन्ती - विजय ध्वजा लिये राजपुरुष चले । तदनन्तर वैडूर्य से देदीप्यमान उज्ज्वल दंडयुक्त, लटकती हुई कोरंट पुरुषों की मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमंडल के सदृश आभामय, समुच्छित, आतपत्र, छत्र, अति उत्तम सिंहासन, श्रेष्ठ मणि - रत्नों से विभूषित, जिस पर राजा की पादुकाओं की जोड़ी रखी थीं, वह पादपीठ, चौकी, जो किङ्करों, विभिन्न कार्यों में नियुक्त भृत्यों तथा पदातियों से घिरे हुए थे, क्रमशः आगे रवाना हुए ।
बहुत से लष्टिग्राह, कुन्तग्राह, चाचग्राह, चमरग्राह, पाशग्राह, पुस्तकग्राह, फलकग्राह, पीठग्राह, वीणाग्राह, कूप्यग्राह, हडप्पयग्राह, यथाक्रम आगे रवाना हुए । उसके बाद बहुत से दण्डी, मुण्डी, शिखण्डी, जटी, पिच्छी, हासकर, विदूषक, डमरकर, चाटुकर, वादकर, कन्दर्पकर,
दवकर, कौत्कुचिक, क्रीडाकर, इनमें से कतिपय बजा हुए, गाते हुए, हंसते हुए, नाचते हुए बोलते हुए, सुनाते हुए, रक्षा करते हुए, अवलोकन करते हुए, तथा जय शब्द का प्रयोग करते हुए - यथाक्रम आगे बढ़े । तदनन्तर जात्य, एक सौ आठ घोड़े यथाक्रम रवाना किये गये । वे वेग, शक्ति और स्फूर्तिमय वय में स्थित थे । हरिमेला नामक वृक्ष की कली तथा मल्लिका जैसी उनकी आँखें थीं । तोते की चोंच की तरह वक्र पैर उठाकर वे शान से चल रहे थे । वे चपल, चंचल चाल लिये हुए थे । गड्ढे आदि लांघना, ऊँचा कूदना, तेजी से सीधा दौड़ना, चतुराई से दौड़ना, भूमि पर तीन पैर टिकाना, जयिनी संज्ञक सर्वातिशायिनी तेज गति से दौड़ना, चलना इत्यादि विशिष्ट गतिक्रम वे सीखे हुए थे । उनके गले में पहने हुए, श्रेष्ठ आभूषण लटक रहे थे । मुख के आभूषण अवचूलक, दर्पण की आकृतियुक्त विशेष अलंकार, अभिलान बड़े सुन्दर दिखाई देते थे । उनके कटिभाग चामर - दंड से सुशोभित थे । सुन्दर, तरुण सेवक उन्हें थामे हुए थे ।
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तत्पश्चात् यथाक्रम एक सौ आठ हाथी रवाना किये गये । वे कुछ कुछ मत्त एवं उन्नत थे । उनके दाँत कुछ कुछ बाहर निकले हुए थे । दाँतों के पिछले भाग कुछ विशाल थे, धवल थे । उन पर सोने के खोल चढ़े थे । वे हाथी स्वर्ण, मणि तथा रत्नों से शोभित थे । उत्तम, सुयोग्य महावत उन्हें चला रहे थे । उसके बाद एक सौ आठ रथ यथाक्रम रवाना किये गये । वे छत्र, ध्वज, पताका, घण्टे, सुन्दर तोरण, नन्दिघोष से युक्त थे । छोटी छोटी घंटियों से युक्त जाल उन पर फैलाये हुए थे । हिमालय पर्वत पर उत्पन्न तिनिश का काठ, जो स्वर्ण- खचित था, उन रथों में लगा था । रथों के पहियों के घेरों पर लोहे के पट्टे चढ़ाये हुए थे । पहियों की धुराएँ गोल थी, सुन्दर, सदृढ बनी थीं । उनमें छंटे हुए, उत्तम श्रेणी के घोड़े जुते थे । सुयोग्य, सुशिक्षित सारथियों ने उनकी बागडोर सम्हाल रखी
तरकश से सुशोभित थे । कवच, शिरस्त्राण, धनुष, बाण तथा अन्यान्य शस्त्र रखे थे । इ प्रकार वे युद्ध-सामग्री से सुसज्जित थे । तदनन्तर हाथों में तलवारें, शक्तियाँ, कुन्त, तोमर, शूल, लट्ठियाँ, भिन्दिमाल तथा धनुष धारण किये हुए सैनिक क्रमशः रवाना हुए ।