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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, महोरग आदि देवों द्वारा निर्ग्रन्थप्रवचन से अनतिक्रमणीय हैं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो निःशंक, निष्कांक्ष, निर्विचिकित्स, लब्धार्थ, गृहीतार्थ, पृष्टार्थ, अभिगतार्थ, विनिश्चितार्थ हैं, जो अस्थि और मज्जा तक धर्म के प्रति प्रेम तथा अनुराग से भरे हैं, जिनका यह निश्चित विश्वास है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही अर्थ है, अन्य अनर्थ हैं, उच्छित, अपावृतद्वार, त्यक्तान्तःपुरगृहद्वारप्रवेश, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करते हुए, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद- प्रोञ्छन, औषध, भेषज, दवा, प्रतिहारिक, पाट, बाजोठ, ठहरने का स्थान, बिछाना आदि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए विहार करते हैं, इस प्रकार का जीवन जीते हुए वे अन्ततः भोजन का त्याग कर देते हैं । बहुत से भोजन-काल अनशन द्वारा विच्छिन्न करते हैं, बहुत दिनों तक निराहार रहते हैं । पाप-स्थानों की आलोचना करते हैं, उनसे प्रतिक्रान्त होते हैं । यो समाधि अवस्था प्राप्त कर मृत्यु- काल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्टतः अच्यूतकल्प में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । अपने स्थान के अनुरूप गति होती है । उनकी स्थिति बाईस सागरोपम होती है । वे परलोक के आराधक होते हैं । शेष पूर्ववत् ।
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ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे- अनारंभ, अपरिग्रह, धार्मिक यावत् सुशील, सुव्रत, स्वात्मपरितुष्ट, वे साधुओं के साक्ष्य से जीवन भर के लिए संपूर्णतः - हिंसा, संपूर्णतः असत्य, सम्पूर्णत: चोरी, संपूर्णतः अब्रह्मचर्य तथा संपूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं, संपूर्णतः क्रोध से मान से, माया से, लोभ से, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत होते हैं, सब प्रकार के आरंभ समारंभ से, करने तथा कराने से, पकाने एवं पकवाने से सर्वथा प्रतिविरत होते हैं, कूटने, पीटने, तर्जित करने, ताडित करने, किसी के प्राण लेने, रस्सी आदि से बाँधने एवं किसी को कष्ट देने से सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं, स्थान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला, और अलंकार से सम्पूर्ण रूप में प्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पाप प्रवृत्तियुक्त, छल-प्रपंचयुक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुँचाने वाले कर्मों से जीवन भर के लिए संपूर्णतः प्रतिविरत होते हैं ।
वे अनगार ऐसे होते हैं, जो ईर्ष्या, भाषा, समिति यावत् पवित्र आचारयुक्त जीवन का सन्निर्वाह करते हैं । ऐसी चर्या द्वारा संयमी जीवन का सन्निर्वाह करने वाले पूजनीय श्रमणों में से कइयों को अनन्त यावत् केवलज्ञान, केवलदर्शन समुत्पन्न होता है । वे बहुत वर्षों तक केवलपर्याय का पालन करते हैं । अन्त में आहार का परित्याग करते हैं अनशन सम्पन्न कर यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं । जिन कइयों अनगारों को केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न नहीं होता, वे बहुत वर्षों तक छद्मस्थ पर्याय में होते हुए संयम पालन करते हैं- फिर किसी आबाध के उत्पन्न होने पर या न होने पर भी वे भोजन का परित्याग कर देते हैं । बहुत दिनों का अनशन करते हैं । जिस लक्ष्य से कष्टपूर्ण संयम पथ स्वीकार किया, उसे आराधित करअपने अन्तिम उच्छ्वास निःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते । तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, सब दुःखों का अन्त करते
हैं ।
कई एक ही भव करनेवाले, भगवन्त-संयममयी साधना द्वारा संसार-भय से अपना परित्राण करनेवाले- उनके कारण, मृत्यु-काल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है । उनकी स्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण होती है । वे परलोक के आराधक होते हैं । शेष पूर्ववत् ।